कविता
पहले पत्नी-पति और संतान आने
पर पत्नी माँ, पति पिता बन जाते हैं,
पत्नी गृह लक्ष्मी बन जाती, पति घर
में रहने वाले पतिदेव बन जाते हैं।
यह भेद हुआ कैसा, पति-पत्नी,
जब पापा-मम्मी बन जाते हैं,
माँ की ममता के समक्ष पापा के
शासन से बच्चे कैसे डर जाते हैं।
ममता का आँचल जितना प्रिय है
अनुशासन में होता उतना विकास
सोच समझ की सम्वेदनशीलता
यही करती प्रेम का शिलान्यास ।
पत्नी “माँ के हाथ का खाना”, पति
घर चलाने वाला पिता रह जाता है,
बच्चों को चोट लगी माँ गले लगा
लेती, पिता डाँटने वाला हो जाता है।
माँ ममतामयी हो जाती, अनुशासन
सिखाने वाला पिता हो जाता है,
बच्चों की गलती पर माँ दुलारती, ‘पापा नहीं समझते’ पिता रह जाते हैं।
“पापा नाराज होंगे” कह कर बच्चे
माँ के दोस्त बन जाते हैं, पापा से नही
बताना कोई भी “पापा गुस्सा करेंगे”
वाले निष्ठुर से बस पिता रह जाते हैं।
माँ के आंसुओं में प्यार, पिता के छिपे
स्नेह में कठोर पिता नज़र आता है,
माँ हृदय से शीतल और पिता न जाने
कैसे कब क्रोधी पिता बन जाता है।
पति-पत्नी या पिता-माता दोनो ही
एक गाड़ी के दो पहिए जैसे होते हैं,
गृहस्थी के फ़ैसले, चलना, चलाना
दोनो की संतुलित समझ से होते हैं।
पर माँ की पदवी धरती माँ, भारत माँ
और पवित्र प्रकृति जैसी हो जाती है
आदित्य पिता जीवन के उत्तरदायित्व
निभाने वाला मात्र पिता रह जाता है।
•कर्नल आदि शंकर मिश्र ‘आदित्य’
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