डॉ.सतीश पाण्डेय
महराजगंज(राष्ट्र की परम्परा)। मनुष्य और परमात्मा का संबंध किसी लिखित अनुबंध या दृश्य प्रमाण पर नहीं, बल्कि विश्वास के उस सूक्ष्म धागे पर टिका है, जो दिखाई नहीं देता पर जीवन को संभाले रखता है। जब परिस्थितियां अनुकूल होती हैं, तब मनुष्य अपने सामर्थ्य पर गर्व करता है, पर जैसे ही संकट आता है, वही मनुष्य अदृश्य शक्ति की ओर निहारने लगता है। यही विश्वास मनुष्य को यह अनुभूति कराता है कि वह अकेला नहीं है, उसके साथ कोई शक्ति है जो उसे देख रही है, संभाल रही है और सही मार्ग की ओर ले जा रही है।
विश्वास ही वह सेतु है, जो सीमित मनुष्य को असीम परमात्मा से जोड़ता है। विज्ञान, तर्क और तकनीक ने मनुष्य को सुविधाएं दी हैं, परंतु जीवन की पीड़ा, भय और अनिश्चितता का समाधान आज भी विश्वास से ही मिलता है। जब मनुष्य अपने सामर्थ्य की सीमा पहचान लेता है, तब वह परमात्मा पर भरोसा करता है। यह भरोसा उसे धैर्य देता है, टूटने से बचाता है और फिर से उठ खड़े होने की शक्ति प्रदान करता है।
परमात्मा पर विश्वास का अर्थ केवल पूजा-पाठ या कर्मकांड नहीं है, बल्कि जीवन मूल्यों को अपनाना है। सत्य, करुणा, सेवा और सद्भाव—यही विश्वास के व्यावहारिक रूप हैं। जो व्यक्ति ईश्वर में विश्वास करता है, वह दूसरों के दुःख को अपना समझता है, अन्याय के विरुद्ध खड़ा होता है और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाता है। इस प्रकार विश्वास केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना का भी आधार बनता है।
आज के भौतिक और प्रतिस्पर्धात्मक युग में विश्वास कमजोर पड़ता दिख रहा है। मनुष्य ईश्वर पर कम और साधनों पर अधिक भरोसा करने लगा है। परिणामस्वरूप तनाव, अकेलापन और असंतोष बढ़ रहा है। ऐसे समय में आवश्यकता है कि मनुष्य पुनः उस विश्वास के धागे को थामे, जो उसे आत्मिक शांति और नैतिक बल देता है।
अंततः मनुष्य और परमात्मा का संबंध आस्था का है, अनुभव का है। जब विश्वास सच्चा होता है, तब जीवन की हर कठिन राह भी साधना बन जाती है। यही विश्वास मनुष्य को अंधकार में आशा का दीपक देता है और उसे मानवता के पथ पर निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।
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