3 अक्टूबर 1831 की ऐतिहासिक घटना और उसके दूरगामी परिणाम
भारत का इतिहास विदेशी आक्रमणों और उपनिवेशवाद की लंबी गाथा है। इसी क्रम में ब्रिटेन और मैसूर राज्य के बीच हुए संघर्षों ने दक्षिण भारत की राजनीति और समाज को गहराई से प्रभावित किया। 3 अक्टूबर 1831 का दिन इस दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने मैसूर राज्य पर प्रत्यक्ष कब्ज़ा कर लिया। यह घटना केवल एक राज्य का अधिग्रहण नहीं थी, बल्कि ब्रिटेन के उपनिवेशवादी साम्राज्य की नींव को और मजबूत करने वाला निर्णायक मोड़ साबित हुई। आइए, इस ऐतिहासिक घटना को विस्तार से समझते हैं।
🔹 मैसूर राज्य की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
मैसूर दक्षिण भारत का एक शक्तिशाली राज्य था, जिसकी नींव 14वीं शताब्दी में वोडेयार वंश ने रखी। 18वीं शताब्दी में हैदर अली और उनके पुत्र टीपू सुल्तान के नेतृत्व में यह राज्य एक सैन्य शक्ति के रूप में उभरा।
हैदर अली ने ब्रिटिशों के विरुद्ध फ्रांसीसियों के सहयोग से कई बार चुनौती दी।
टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों को दक्षिण भारत से उखाड़ फेंकने का स्वप्न देखा और मैसूर को आधुनिक हथियारों, प्रशासन और अर्थव्यवस्था से सशक्त किया।
लेकिन 1799 की चौथी आंग्ल-मैसूर युद्ध में श्रीरंगपट्टनम की लड़ाई के दौरान टीपू सुल्तान वीरगति को प्राप्त हुए।
इसके बाद ब्रिटेन ने मैसूर के पुराने वोडेयार वंश को पुनः गद्दी पर बैठा दिया, लेकिन शर्त यह रही कि वे अंग्रेज़ी हुकूमत के अधीन रहेंगे।
🔹 टीपू सुल्तान के बाद मैसूर
टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद मैसूर कमजोर हो चुका था।
अंग्रेजों ने वोडेयार वंश के बालक कृष्णराज वोडेयार तृतीय (Krishnaraja Wodeyar III) को 1799 में गद्दी पर बैठाया।
वास्तविक सत्ता ब्रिटिश रेजीडेंट (Resident) और ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में आ गई।
वोडेयार शासक नाम मात्र के राजा बन गए, जबकि कर संग्रह, सैनिक व्यवस्था और बाहरी नीतियों पर ब्रिटेन का नियंत्रण था।
🔹 ब्रिटिश हस्तक्षेप और ‘कुप्रशासन’ का बहाना
19वीं शताब्दी के पहले तीन दशक मैसूर के लिए अस्थिर रहे। कृष्णराज वोडेयार तृतीय व्यक्तिगत रूप से सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यों में अधिक रुचि रखते थे।
उन्होंने कला, साहित्य और मंदिरों के विकास पर ध्यान दिया।
किंतु प्रशासनिक और वित्तीय मामलों में उनकी पकड़ कमजोर बताई गई।
ब्रिटिश अधिकारियों ने लगातार यह प्रचार किया कि राजा और उनके मंत्रियों के कारण राज्य में भ्रष्टाचार, वित्तीय अनियमितता और जनता पर अत्याचार बढ़ रहे हैं।
1820 के दशक तक अंग्रेजी दस्तावेज़ों में “कुप्रशासन” (Misrule) शब्द बार-बार उपयोग किया जाने लगा।
ब्रिटेन का वास्तविक मकसद था मैसूर पर प्रत्यक्ष कब्ज़ा करना ताकि दक्षिण भारत पर उनका प्रभाव स्थायी रूप से मजबूत हो सके।
🔹 आयोग की नियुक्ति और रिपोर्ट
ब्रिटेन ने 1830 में एक आयोग (Commission) गठित किया, जिसने मैसूर राज्य के प्रशासन की जाँच की।
आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि राजा का शासन अक्षम और भ्रष्ट है।
किसानों पर अत्यधिक कर लगाए जा रहे हैं।
राज्य की आय-व्यय व्यवस्था पारदर्शी नहीं है।
यह रिपोर्ट ब्रिटिशों के लिए वह ‘औचित्य’ (justification) बन गई, जिसके आधार पर वे मैसूर की सत्ता सीधे अपने हाथ में लेना चाहते थे।
🔹 3 अक्टूबर 1831 – ब्रिटिश अधिग्रहण का दिन
3 अक्टूबर 1831 को अंग्रेजों ने आधिकारिक रूप से मैसूर की सत्ता अपने हाथों में ले ली।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने मैसूर का प्रशासन अपने सीधे नियंत्रण में ले लिया।
राजा कृष्णराज वोडेयार को केवल औपचारिक उपाधि और कुछ राजसी सुविधाएँ दी गईं, लेकिन उन्हें शासन से पूरी तरह अलग कर दिया गया।
कंपनी ने एक ब्रिटिश कमिश्नर को नियुक्त किया, जिसने राज्य का प्रशासन संभाला।
इस तरह वोडेयार वंश का प्रत्यक्ष शासन समाप्त हो गया और मैसूर लगभग आधी सदी तक ब्रिटिश प्रशासकों के अधीन रहा।
🔹 ब्रिटिश प्रशासन के प्रभाव
ब्रिटिश कब्ज़े के बाद मैसूर में कई बड़े परिवर्तन हुए –
यह कदम ब्रिटिशों की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का हिस्सा था, ताकि स्थानीय राजाओं को अपने अधीन रखकर जनता का गुस्सा कम किया जा सके
🔹 मैसूर पर कब्ज़े का ऐतिहासिक महत्व
3 अक्टूबर 1831 की घटना का महत्व कई दृष्टियों से है –
मैसूर का अधिग्रहण हमें यह सिखाता है कि विदेशी ताकतें अक्सर अपने हित साधने के लिए स्थानीय कमज़ोरियों और असंतोष का लाभ उठाती हैं। टीपू सुल्तान के बाद जिस मैसूर ने सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से पुनर्निर्माण का प्रयास किया था, वही मैसूर अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की शिकार बन गया।
यह घटना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि में एक बड़ा सबक बनकर सामने आई कि जब तक भारतीय एकजुट होकर विदेशी शासन का विरोध नहीं करेंगे, तब तक वे बार-बार उपनिवेशवादी चालों का शिकार होते रहेंगे।
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