तेजी से बदलते दौर में सामाजिकता की गिरती दीवारें

महराजगंज(राष्ट्र की परम्परा)।आज का समाज बदलाव के ऐसे मोड़ पर खड़ा है,जहां आधुनिकता की रफ्तार ने मानवीय संबंधों के मूल सार को ही चुनौती दे दी है। जिस सामाजिकता ने कभी लोगों को जोड़कर रखा, विचारों को व्यापक बनाया और समाज को एक धागे में पिरोया वही सामाजिकता आज धीरे-धीरे दरक रही है। गांव से शहर और शहर से महानगर तक, हर जगह एक ही सवाल खड़ा है: क्या हम विकास के नाम पर संवेदनाओं का सौदा कर रहे हैं? रफ्तार बढ़ी, रिश्ते धीमे पड़ गए,
टेक्नोलॉजी, सोशल मीडिया और उपभोक्तावाद ने जीवन को आसान तो बनाया है, लेकिन रिश्तों की गहराई को हल्का भी कर दिया है। पहले मोहल्ले में एक चूल्हा जलता तो उसकी गर्माहट कई घरों तक पहुंचती थी, आज एक घर की चौखट अपने पड़ोसी तक नहीं खुलती।
लोगों के बीच संवाद खत्म होने लगा है। रिश्ते औपचारिक होते जा रहे हैं और व्यवहार समय की कमी व सुविधा के हिसाब से ढल गया है। स्वार्थ की खिड़कियों ने सामाजिकता की हवादार दीवारें ढक दीं
बदलते परिवेश में ‘मैं’ की सोच ने ‘हम’ की भावना को पीछे धकेल दिया है। पहले दूसरों के दुख-सुख में शामिल होना सामाजिक कर्तव्य था, आज इसे पर्सनल चॉइस के फ्रेम में डाल दिया गया है।सामाजिकता का दायरा अब त्योहारों, समारोहों और पारिवारिक आयोजनों तक सीमित हो गया है। भावनात्मक जुड़ाव की जगह औपचारिक उपस्थिति ने ले ली है त्याग– सहयोग की परंपरा अब सवालों के घेरे में है,
जहां कभी बड़े-बुजुर्गों की सीख और उनकी उपस्थिति परिवार को दिशा देती थी, वहीं आज उसी दिशा–निर्देश को हस्तक्षेप माना जा रहा है। संस्कार और अनुशासन जैसी बातें आधुनिकता की भीड़ में छूटती जा रही हैं। सहयोग की संस्कृति पर प्रतिस्पर्धा और तुलना हावी हो गई है। अब लोग साथ चलने से ज्यादा, दूसरों को पीछे छोड़ने की सोच के साथ दौड़ते दिखते हैं।
डिजिटल निकटता ने वास्तविक दूरी बढ़ा दी,
सोशल मीडिया ने दुनिया को भले ही छोटा कर दिया हो, लेकिन दिलों की दूरी बढ़ा दी है। एक क्लिक पर सैकड़ों दोस्त बनाने वाला इंसान, असल जिंदगी में एक सच्चा साथी खोजने में संघर्ष कर रहा है। परिवार एक ही छत के नीचे रहते हुए भी अलग-अलग डिजिटल दुनिया में खोया रहता है। संवाद शब्दों में नहीं, इमोजी में सिमट गया है।क्या लौट पाएगी सामाजिकता की गर्माहट?
जरूरी यह नहीं कि हम विकास की दौड़ रोक दें, पर यह भी जरूरी है कि हम सामाजिक मूल्यों का हाथ न छोड़ें।अगर सामाजिकता टूटेगी, तो परिवार टूटेंगे; परिवार टूटेंगे, तो समाज कमजोर होगा।
समाज की मजबूती उसके आर्थिक विकास में नहीं, बल्कि उसकी सांस्कृतिक एकता और मानवीय भावनाओं में होती है।
आज जिस तेजी से सामाजिकता की दीवारें गिर रही हैं, उसी तेजी से उन्हें मजबूत करने की भी आवश्यकता है।
हमें फिर से अपनी जड़ों की ओर लौटकर संवाद, सहयोग, संवेदना और सामूहिकता के भाव को पुनर्जीवित करना होगा।
तेजी से बदलते समय में, सामाजिकता ही वह पुल है जो व्यक्ति को समाज से, और समाज को मानवता से जोड़ता है।

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