देश में लड़कियों की शिक्षा को लेकर पिछले एक दशक में नीतिगत स्तर पर कई बड़े कदम उठाए गए हैं। छात्रवृत्ति योजनाएं, मुफ्त साइकिल वितरण, यूनिफॉर्म सहायता, आवासीय विद्यालय, डिजिटल शिक्षा और “बेटी बचाओ–बेटी पढ़ाओ” जैसे अभियानों ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में ला दिया है। काग़ज़ों पर तस्वीर उत्साहजनक दिखती है, लेकिन ज़मीनी हकीकत अब भी सवालों से भरी है। आज भी बड़ी संख्या में लड़कियां माध्यमिक और उच्च शिक्षा तक पहुंचने से पहले ही पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हैं। सवाल यह है कि जब योजनाएं मौजूद हैं, तो लड़कियों की शिक्षा अधूरी क्यों रह जाती है?
नामांकन बढ़ा, निरंतरता टूटी
ग्रामीण और अर्ध-शहरी भारत में प्राथमिक स्तर पर बालिकाओं का नामांकन पहले की तुलना में बेहतर हुआ है। सरकारी आंकड़े भी यह संकेत देते हैं कि कक्षा 1 से 5 तक लड़कियों की भागीदारी में वृद्धि हुई है। लेकिन जैसे ही किशोरावस्था शुरू होती है, स्कूल छोड़ने की दर तेजी से बढ़ जाती है। कक्षा 8 के बाद यह गिरावट और गहरी हो जाती है। इसके पीछे सामाजिक सोच, सुरक्षा संबंधी चिंताएं और भविष्य को लेकर अनिश्चितता प्रमुख कारण हैं।
आज भी कई परिवारों में यह धारणा बनी हुई है कि बेटियों की शिक्षा पर अधिक खर्च करने से बेहतर है उन्हें जल्दी विवाह के लिए तैयार किया जाए। घरेलू कामकाज की जिम्मेदारी और छोटे भाई-बहनों की देखभाल भी पढ़ाई में बाधा बनती है। यह मानसिकता लड़कियों की शिक्षा के सबसे बड़े अवरोधों में से एक है।
आर्थिक दबाव और “छिपे खर्च”
सरकारी योजनाओं के बावजूद शिक्षा पूरी तरह निःशुल्क नहीं हो पाती। किताबें, कॉपी, परिवहन, परीक्षा शुल्क, यूनिफॉर्म, प्रोजेक्ट और कोचिंग जैसे खर्च गरीब और मध्यम वर्गीय परिवारों पर भारी पड़ते हैं। छात्रवृत्तियां अक्सर समय पर नहीं मिलतीं या जटिल प्रक्रियाओं के कारण पात्र छात्राएं लाभ से वंचित रह जाती हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल शिक्षा को बढ़ावा दिया जा रहा है, लेकिन स्मार्टफोन, इंटरनेट और डेटा पैक की लागत एक नई आर्थिक चुनौती बन गई है। इससे लड़कियों की शिक्षा में एक डिजिटल खाई पैदा हो रही है, जहां संसाधनविहीन छात्राएं पीछे छूट जाती हैं।
सुरक्षा और बुनियादी सुविधाओं का संकट
लड़कियों की पढ़ाई में सुरक्षा सबसे संवेदनशील मुद्दा है। दूर स्थित स्कूल, सुरक्षित परिवहन की कमी, रास्तों पर छेड़छाड़ का डर और साइबर उत्पीड़न की आशंका माता-पिता को चिंतित करती है। कई सरकारी स्कूलों में आज भी अलग शौचालय, स्वच्छ पानी और पर्याप्त प्रकाश जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है।
किशोरावस्था में स्वास्थ्य और स्वच्छता से जुड़ी सुविधाएं न मिलने पर लड़कियों की स्कूल उपस्थिति प्रभावित होती है। जब शिक्षा का वातावरण सुरक्षित और सम्मानजनक नहीं होता, तो लड़कियों की शिक्षा स्वतः ही बाधित हो जाती है।
शिक्षा की गुणवत्ता और भविष्य की दिशा
सिर्फ स्कूल में नाम लिख जाना ही शिक्षा नहीं है। कई सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों की कमी, अनियमित कक्षाएं और कमजोर शैक्षणिक स्तर एक गंभीर समस्या है। करियर मार्गदर्शन, कौशल विकास और उच्च शिक्षा के विकल्पों की जानकारी के अभाव में लड़कियां पढ़ाई को अपने भविष्य से जोड़ नहीं पातीं।
जब शिक्षा रोजगार और आत्मनिर्भरता का भरोसा नहीं देती, तो परिवार भी इसे प्राथमिकता नहीं देता। परिणामस्वरूप, लड़कियों की शिक्षा डिग्री तक सीमित रह जाती है, सशक्तिकरण तक नहीं पहुंच पाती।
योजनाएं हैं, लेकिन क्रियान्वयन कमजोर
नीतियों और योजनाओं की कमी नहीं है, कमी है उनके प्रभावी क्रियान्वयन की। लाभार्थियों की सही पहचान, समय पर भुगतान, स्थानीय स्तर पर निगरानी और जवाबदेही की व्यवस्था कमजोर है। कई बार योजनाएं काग़ज़ों में सफल दिखती हैं, लेकिन ज़मीन पर उनका असर सीमित रहता है।
जब तक प्रशासनिक तंत्र पारदर्शी और संवेदनशील नहीं बनेगा, तब तक लड़कियों की शिक्षा के लक्ष्य अधूरे रहेंगे।
लड़कियों की शिक्षा केवल सामाजिक न्याय का प्रश्न नहीं, बल्कि देश के भविष्य का आधार है। योजनाओं की संख्या बढ़ाने से ज्यादा ज़रूरी है उनकी गुणवत्ता और प्रभावशीलता। सामाजिक सोच में बदलाव, आर्थिक सहयोग की सरल व्यवस्था, सुरक्षित शैक्षिक वातावरण और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा—ये सभी मिलकर ही वास्तविक सशक्तिकरण की राह खोल सकते हैं।
जब शिक्षा बेटियों को आत्मनिर्भर, सुरक्षित और सम्मानजनक भविष्य का भरोसा देगी, तभी “बेटी पढ़ाओ” का सपना साकार होगा। वरना काग़ज़ों में सशक्तिकरण और ज़मीन पर संघर्ष की यह दूरी बनी रहेगी।
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