कैलाश सिंह
महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)। समाज की सच्चाई कई बार बेहद निर्मम होती है। पिता के निधन के बाद बेटा घर, जमीन और जिम्मेदारियों का मालिक बन जाता है। विरासत उसके नाम हो जाती है और फैसलों की कमान उसके हाथ में आ जाती है। लेकिन मां के निधन के बाद वही बेटा—चाहे वह उम्र, पद या संपत्ति में कितना ही बड़ा क्यों न हो—अंदर से पूरी तरह अनाथ हो जाता है।
पिता परिवार की व्यवस्था, अनुशासन और संरचना का प्रतीक होता है, जबकि मां परिवार की आत्मा होती है। पिता के जाने से घर की कमान बदलती है, लेकिन मां के जाने से घर की रौनक, अपनापन और संवेदना हमेशा के लिए खो जाती है। मां के हाथ का स्वाद, उसकी डांट में छिपा स्नेह और उसकी खामोशी में बसी दुआएं—सब एक साथ जीवन से विदा हो जाती हैं।
आज का दौर अधिकारों और संपत्ति की भाषा तो खूब समझता है, लेकिन भावनात्मक उत्तराधिकार को लगातार भूलता जा रहा है। मां वह रिश्ता है, जो बिना शर्त साथ निभाता है, जो हर गलती पर भी ढाल बनकर खड़ा रहता है। उसके जाने के बाद त्योहार औपचारिक बन जाते हैं, घर सिर्फ एक मकान रह जाता है और रिश्ते संवेदनाओं की जगह शब्दों में सिमट जाते हैं।
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यह लेख समाज से एक सीधा सवाल करता है—क्या हम मां के रहते उनके महत्व को समझते हैं? क्या आधुनिकता और व्यस्त जीवन की दौड़ में हमने उस ममता की कद्र खो दी है, जो हमें इंसान बनाती है?
सच यही है कि पिता के बाद बेटा मालिक बन सकता है, लेकिन मां के बाद हर बेटा जीवन भर के लिए अनाथ हो जाता है। यही समाज की सच्चाई है और यही हमारे समय का सबसे सच्चा आईना।
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