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सावरकर की प्रतिमा का अनावरण या हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे का निरावरण

बादल सरोज

आजकल के हालचाल में दर्ज किये जाने लायक नई बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छाप तिलक सब छोड़ अनावृत, निरावृत धजा में आने की चाल-ढाल है। राजनीति से अलग-थलग रहने और सांस्कृतिक संगठन होने का दावा करने वाला दुनिया का ‘सबसे बड़ा’ बिना रजिस्ट्रेशन वाला एनजीओ अब खुलकर सत्ता और उसकी पार्टी के साथ आलिंगनबद्ध दिखने में गुरेज नहीं कर रहा। उत्तर से सुदूर दक्षिण तक हर जगह गाँठ बांधे जोड़े में दिखने के लिए आतुर और तत्पर है। लगता है कथा अब लिपे से बाहर जा चुकी है। न शासन के प्रोटोकॉल्स की मर्यादाओं की परवाह है, ना ही दिखावे के लिए ही कुछ दूरी बनाने की सावधानी है। खुला खेल फर्रुखाबादी है। अयोध्या कांड के हाल के दोनों अध्यायों में आर एस एस प्रमुख मोहन भागवत सत्ता के नम्बर वन के साथ आगे-आगे प्रकटायमान थे, तो पिछले सप्ताह अंडमान में नम्बर दो के साथ विराजमान थे।

अपने अतीत के कारनामों के चलते अब तक खुद कुनबे द्वारा एक हाथ की दूरी पर रखे गए संघ के एकदम अंतरंग साथ तक पहुँच जाने की स्थिति में दिखना सिर्फ फोटो फ्रेम में समाने या चेहरा दिखाने भर का प्रसंग नहीं है। यह इसे प्रतिष्ठा और स्वीकार्यता देने का मामला तो है ही, मगर उससे ज्यादा भारतीय इतिहास से वर्तमान तक देश की जनता के विराट बहुमत द्वारा खारिज और अस्वीकार किये गए इसके पूरी तरह अभारतीय और बिलकुल असंवैधानिक एजेंडे को आगे बढ़ाने का और इसी के साथ उसे एक तरह से देश की सरकार का लक्ष्य और ध्येय बनाना है।

12 दिसंबर को अंडमान द्वीप समूह के बेओदनाबाद – श्रीविजयपुरम – में ‘वीर सावरकर इंस्पिरेशन पार्क’ का उदघाटन समारोह इसकी ताज़ी मिसाल है। मजे की बात यह है कि जिनकी प्रतिमा पधराई जा रही थी और प्रेरणा लेने वाला बगीचा उदघाटित किया जा रहा, वे विनायक दामोदर सावरकर जीवन भर जिस पार्टी के नेता रहे उस अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का कोई प्रतिनिधि मंच तो छोड़िए, दीर्घा तक में नहीं था। कौन किसके साथ था, इस पचड़े में फंसने की बजाय यह कहना ही पर्याप्त है कि संघ सरसंचालक मोहन भागवत और गृहमंत्री अमित शाह का संग साथ था।

इस अवसर पर जो साथ-साथ कहा गया, वह गौरतलब है। भारत के गृहमंत्री के नाते बोलते हुए अमित शाह ने जहां सावरकर को देश का सबसे महान स्वतन्त्रता सेनानी बताया और कहा कि उनकी प्रतिमा आने वाली पीढ़ियों को उनके त्याग और देशभक्ति की याद दिलाती रहेगी । शाह यह भी बोले कि ‘सावरकर को ‘वीर’ की उपाधि किसी सरकार ने नहीं, बल्कि देश की जनता ने उनके अदम्य साहस के लिए दी है।‘ यह कितना बड़ा झूठ है इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। इतना ही काफी है कि यह बात अब सिर्फ उनसे असहमत लोग ही नहीं, उनके प्रशंसक, समर्थक और जीवनीकार तथा जिस कितबिया में उन्हें ‘ वीर सावरकर’ संबोधन दिया गया था, उसके प्रकाशक भी मान चुके हैं कि जिसमें ‘वीर सावरकर’ लिखा गया उस किताब के लेखक – चित्रगुप्त – कोई और नहीं, स्वयं सावरकर ही थे।

रही उनके ‘महान’ स्वतन्त्रता सेनानी होने की बात, तो कभी-कभी लगता है, जैसे समय-समय पर उनके बारे में इस तरह का दावा ठोककर आरएसएस जानबूझकर देश के स्वतन्त्रता संग्राम में उनकी भूमिका के कृष्ण-पक्ष को पुनि पुनि उजाले में ला देता है और ऐसा करके उनके द्वारा आजीवन की गयी संघ की आलोचनाओं, उसके उड़ाए गए मजाक का बदला लेता है।

दस्तावेजी सबूतों के साथ लिखे गए ग्रंथों के हिमालयी ऊंचाईयों के पहाड़ के पहाड़ मौजूद हैं, जो बताते हैं कि आजादी की लड़ाई में 1909 के बाद वाले सावरकर की भूमिका और योगदान नायक की नहीं, प्रतिनायक की थी। उन्होंने भारतीय जनता के इस महासंग्राम को सिर्फ रूप में नहीं, सार में भी ऐसा अपूरणीय नुकसान पहुंचाया था, जिसकी कोई और दूसरी मिसाल नहीं है। उनकी दो-दो आजीवन कारावासों की कहानी सुनाने वाले यह बात नहीं बताते कि कुल जमा 12 वर्ष के कारावास में असल में वे 10 वर्ष से भी कम समय कालापानी के नाम से कुख्यात उस जेल में रहे, जहां बाकी स्वतन्त्रता सेनानी या तो कभी रिहा ही नहीं हुए थे या आजादी के बाद ही छूट पाए थे।

जहां तक जेल में सावरकर द्वारा भुगती यातनाओं और दूसरी कहानियों की असलियत है, तो उसे उनके समकालीन स्वतंत्रता सेनानी बारीन्द्र नाथ घोष अंडमान की सेलुलर जेल में अपने अनुभवों पर लिखी ‘द्वीपान्तरे कथा’ – द टेल ऑफ माय एक्जाइल – किताब में दर्ज कर देश को बता चुके हैं। सावरकर के जीवन काल में ही बारीन्द्र घोष अपने संस्मरण और बाद के साक्षात्कारों में बताते हैं कि उन्होंने स्वयं कोल्हू से तेल निकालने का काम किया था, लेकिन उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर को कभी कोल्हू चलाते हुए नहीं देखा। उनके अनुसार, सावरकर अक्सर जेल की लाइब्रेरी में काम करते थे, किताबें पढ़ते थे और अन्य कैदियों को पढ़ाते थे। मुस्लिम वार्डरों द्वारा हिंदू कैदियों के उत्पीड़न की सावरकर की कहानी को भी बारीन्द्र घोष गलत बताते हुए लिखते हैं कि ‘वार्डरों के हाथों हिंदू और मुस्लिम दोनों ही कैदी समान रूप से प्रताड़ित होते थे।‘

वे बताते हैं कि ‘सावरकर जेल प्रशासन के खिलाफ हुए संघर्षों में भी कभी शामिल नहीं हुए। जब नानी गोपाल जैसे क्रांतिकारियों ने जेल में भूख हड़ताल की थी, तब भी सावरकर भाईयों (विनायक या गणेश) ने इसमें भी हिस्सा नहीं लिया था।‘

उसी अंडमान में जाकर भागवत और शाह द्वारा सावरकर का उन कामों के लिए, जो उन्होंने कभी किये ही नहीं, का गौरवगान करना एक तरह से इस जेल में रहे स्वतन्त्रता सेनानियों का अनादर ही कहा जाएगा।

प्रसंगवश यह याद दिलाना जरूरी है कि काला पानी की सेलुलर जेल से रिहा होने वाले तीन चौथाई – 75% – स्वतंत्रता सेनानी लाल झंडे को थामकर आजादी को उसके अगले चरण – भगतसिंह के सपनों की मंजिल – तक ले जाने की लड़ाई में कूद पड़े थे, जबकि सावरकर बीच गुलामी में ही रत्नागिरी में अंग्रेज सरकार के वजीफाख्वार बनकर 60 रूपये की पेंशन ले रहे थे। यह राशि उस जमाने में कितनी बड़ी थी, इसे समझने के लिए यह बताना काफी होगा कि सावरकर ने उसे बढाने के लिए जब रत्नागिरी कलेक्टर को चिट्ठी लिखी, तो उसने उन्हें जवाब देते हुए कहा कि ‘मैं इसकी सिफारिश करने के योग्य नहीं हूँ, क्योंकि मेरा वेतन आपकी पेंशन से भी कम है।“

12 दिसम्बर को प्रतिमा अनावरण के वक़्त दिए अपने भाषण में मोहन भागवत ने दावा किया कि “सावरकर के खतों से देश के प्रति गहरी भक्ति झलकती थी और वे कहते थे कि अगर सात भाई होते, तो सभी देश के लिए खुशी-खुशी जेल जाते।“ भागवत साहब को सावरकर साहब के किन खतों में देशभक्ति नजर आ गई, ये यह उन्हें बताना चाहिए। अलबत्ता सावरकर जिन चिट्ठियों के लिए विश्वप्रसिद्ध हैं उन 1911, 13, 14, 18 और 1920 की चिट्ठियों में कातर प्रार्थना और इंग्लॅण्ड की रानी से ‘माँ मुझे अपने आंचल में छुपा ले, गले से लगा ले’ के दारुण विलाप और ‘बिगड़े बेटे को सुधरने’, अपनी गोद में जगह देने की मनुहार और बाकी जिन्दगी रानी और ब्रिटिश हुकूमत की सेवा करने तथा कभी राजनीति में भाग न लेने की गुहार के सिवाय कुछ नहीं है । मानना पडेगा कि वे अपनी बात के धनी थे, रानी की कृपा से रिहा होने के बाद उन्होंने जो कहा था, उसे निबाहा भी : अंग्रेजी राज की सेवा में हर तरह से अपना जीवन झोंक दिया।

1857 की महान लड़ाई — जिसे उसी वर्ष अमरीका के अखबारों के लिए अपने लेखों में कार्ल मार्क्स ने भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा था – में हिंदू-मुस्लिम की साझी बहादुरी और कुर्बानियों से हासिल कौमी एकता, (जिसकी सराहना स्वयं सावरकर ने 1909 में लिखी अपनी अन्यथा अच्छी किताब इंडियन वार ऑफ़ इंडिपेंडेंस 1857 में भी की थी) को छिन्न-भिन्न करने और अपनी ही किताब में लिखी बातों के खिलाफ आचरण करने में पूरा शक्ति लगा दी। नमाज के समय मस्जिदों के सामने बैंड बाजे बजाकर दंगे करवाने का प्रयोग सबसे पहले इन्ही की अगुआई में रत्नागिरी में हुआ, जिसे बाद में संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने अपनी नित्य की जाने वाली क्रिया का हिस्सा बनाया ।

इन दिनों कुनबे की प्रचार भुजाएं भारत विभाजन की जिम्मेदारियों की टोपियां पहनाने में लगी हैं। ऐसा करते में वे बेचारे सावरकर को उनके ‘महान’ योगदान से महरूम कर देती हैं। सावरकर वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने भारत के बंटवारे की आधारशिला रखी थी।

हिंदुत्व शब्द भले 1892 में चंद्रनाथ बसु ने उपयोग में लाया था, मगर उसे साम्प्रदायिक हथियार के रूप में सावरकर ने ही तराशा और धारदार बनाकर प्रस्तुत किया। अपनी कितबिया हिंदुत्व (एसेंसियल ऑफ हिंदुत्व) में उन्होंने 1922 में ही हिन्दू और मुसलमानों के दो अलग-अलग राष्ट्र की अवधारणा दे दी थी। शेष जीवन में इसे अमल में लाने का ही काम किया। यह सावरकर ही थे, जिहोने 1937 के हिंदू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन में दो राष्ट्रों की आवश्यकता पर एक प्रस्ताव पारित कराया। जब कोई तीन वर्ष बाद 1940 में हुए मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में, जिन्ना के नेतृत्व में, दो राष्ट्रों के लिए प्रस्ताव पारित किया गया, तब सबसे पहले उसके स्वागत और अभिनंदन में जिन्ना को बधाई पत्र लिखने वाले भी सावरकर ही थे।

उनकी ही अगुआई वाली हिंदू महासभा थी, जिसने बाद में बंगाल, एनडब्ल्यूएफपी और सिंध विधानसभाओं में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर गठबंधन सरकारें बनाईं। भाजपा के पितृपुरुष, इसके पूर्ववर्ती संस्करण जनसंघ के संस्थापक पंडित श्यामाप्रसाद मुखर्जी बंगाल में सुहरावर्दी के प्रधानमंत्रित्व वाली ऐसी ही सरकार में उपप्रधानमंत्री बने और सब कुछ के बाद भी बने ही रहे। गाँठ इतनी मजबूत थी कि जब सिंध – जिसे कुछ दिन पहले राजनाथ सिंह भारत का हिस्सा बनाने की ऊंची फेंक रहे थे, उसकी — विधानसभा में, जीएम सैयद ने पाकिस्तान के लिए प्रस्ताव रखा, तब भी हिंदू महासभा इन सरकारों का हिस्सा बनी रही।

स्वतंत्र और संप्रभु भारत के वे कितने महान पक्षधर थे, यह हिन्दू महासभा अध्यक्ष के रूप में उनके दौरों में 1937 से 1940 तक उनके साथ रहे सहयोगी भिड़े ने अपनी डायरी में दर्ज किया है। सावरकर के हवाले से वे लिखते हैं कि ‘यदि मजबूरी में अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना भी पड़े, तो इस देश की सत्ता नेपाल के महाराजा को सौंपकर जाना चाहिये।‘ वे लिखते हैं कि ‘ब्रिटेन को भी यह ज़्यादा सम्मानजनक लगेगा कि भारतीय साम्राज्य की सत्ता, अगर कभी उसके हाथ से निकलती है, तो उसे नेपाल के राजा जैसे ब्रिटेन के बराबर और स्वतंत्र सहयोगी को सौंपा जाए।

ऐसे अनेक तथ्य गिनाये जा सकते हैं, जो यह बताते हैं कि जेल से रिहा होने के बाद सावरकर अंग्रेजों के एजेंट की तरह काम कर रहे थे, मगर फिलहाल सिर्फ दो ही ले लेते हैं। भागवत अपने भाषण में अंडमान को सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज द्वारा मुक्त कराया गया पहला भू-भाग बता रहे थे, मगर यह नहीं बता रहे थे कि जिनकी प्रतिमा लगाते समय वे यह बात कह रहे हैं, उन साहब ने नेताजी सुभाष बोस की आजाद हिन्द फ़ौज के खिलाफ लड़ने के लिए, हिन्दू नौजवानों को अंग्रेजों की सेना में भर्ती होने के लिए बाकायदा अभियान चलाया था। बाद में लिखे अपने लेखों में उन्होंने दावा किया था कि उनकी इस मुहिम से प्रेरित होकर लाखों युवा ब्रिटिश आर्मी में शामिल हुए थे।

आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों को सार रूप में फ़ायदा पहुंचाने का जो काम सावरकर ने किया, वह हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए काम करने वाली ताक़तों को कमज़ोर करने का था। पूरी लड़ाई में वे काँग्रेस और कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ रहे, गांधी को सबसे बड़ा दुश्मन मानते रहे। गांधी की हत्या – जिसे कुनबा गांधी वध कहता है — एकदम ताजे-ताजे आजाद हुए देश के सबसे महान नायक को मारकर अराजकता और विखंडन पैदा करने की साजिश थी।

जिन सरदार पटेल को इन दिनों ये अपना पुरखा बताने पर तुले हैं, उन्होंने भारत के गृहमंत्री के नाते प्रधानमंत्री नेहरू को 27 फरवरी 1948 और श्यामा प्रसाद मुखर्जी को 18 जुलाई 1948 को लिखी चिट्ठी में साफ़ तौर से इस हत्या का जिम्मेदार सावरकर और आरएसएस को बताया था । नेहरू को लिखी चिट्ठी में उन्होंने बताया कि “हत्या की साजिश हिन्दू महासभा में सावरकर के प्रत्यक्ष नेतृत्व वाली कट्टरपंथी शाखा ने रची और इसे अंजाम दिया।“ गांधी की हत्या में उनकी लिप्तता, संदेह के आधार पर उनके बरी हो जाने से ख़त्म नहीं हो जाती। उनके सहयोगियों, अनुयायियों ने बाद में अपनी किताबों में जो ब्यौरा दिया, वह यदि उस समय आ जाता, तो उन्हें शर्तिया कम-से-कम आजीवन कारावास तो होता ही।

12 दिसम्बर को भागवत और शाह ने अपने भाषणों में जब “सावरकर जी का चरित्र देखते हैं तो उनके चरित्र में पूर्णता मिलती है। वर्णन बहुत हुआ है, सब प्रकार की प्रतिभा सावरकर जी के पास थी।“ की अतिशयोक्तियों का वाचन भी किया। सार की बात वह थी, जिसे भागवत ने रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि “राष्ट्र क्या है इसकी स्पष्ट कल्पना सावरकर जी ने दी है। उन्होंने उसको हिंदू राष्ट्र कहा है। हिंदू की व्याख्या भी बताई है।“ धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य के गृह मंत्री अमित शाह ने इसे और आगे बढाते हुए कहा कि “सावरकर ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की नींव रखने वाले क्रांतिकारी थे, जिनकी विचारधारा आज भी देश का मार्गदर्शन कर रही है।“ इस तरह अंडमान के तमाशे का असली मकसद सावरकर के बहाने भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के धतकरम को आगे बढ़ाने का ही था। यही वह ‘प्रतिभा’ है, जिस पर लहालोट होकर कुनबा सावरकर–सावरकर का जाप कर रहा है।

सावरकर का हिन्दू राष्ट्र क्या है?

हिंदुत्व को परिभाषित करते हुए सावरकर पहले ही साफ़-साफ़ कह चुके थे कि उनका जो हिंदुत्व है, उसका हिन्दू धर्म या उसकी परम्पराओं से कोई संबध नहीं है, यह राज काज चलाने वाली एक राजनीतिक धारणा है। इसका लक्ष्य “राष्ट्र का हिन्दूकरण, हिन्दुओं का सैनिकीकरण” है। उनके मुताबिक़ ऐसा करने के बाद जैसा भारत बनाया जाएगा, उसका मूल मनुस्मृति होगी। जिन सावरकर को अमित शाह ‘सामाजिक बुराइयों को खत्म करने के उनके प्रयासों के लिए वह पहचान नहीं मिली, जो उन्हें मिलनी चाहिए थी।‘ वाला बता रहे थे, उनका मनुस्मृति को वेदों के बाद सबसे पवित्र और पूजनीय ग्रंथ बताया जाना उनके ‘सुधारक’ के असली रूप को सामने ला देता है।

महिलाओं के प्रति उनकी ‘उदारता’ कितनी थी, यह इटली के फासिस्ट हत्यारे मुसोलिनी की पत्नी की तारीफ़ में लिखे उनके आप्त-वचन साफ़ कर देते हैं। राशेल मुसोलिनी की आरती-सी उतारते हुए उन्होंने लिखा था कि वे इसलिए महान हैं, क्योंकि वे ‘एक ऐसी सीधी-सादी गृहिणी हैं, जो घर की चौखट के बाहर पाँव तक नहीं रखती।‘ इसी में नारी के प्रमुख कर्तव्य गिनाते हुए उन्होंने कहा कि ‘घर के काम, बच्चे पैदा करना, पति की सेवा करना, परिवार एवं घर के नौकर-चाकरों का परिपालन ही अच्छी नारी के काम हैं।“
अंडमान में आरएसएस और भाजपा सरकार की युति ठीक इसी तरह के हिन्दू राष्ट्र की कायमी के एजेंडे को साधने के लिए सावरकर की तारीफ़ के पुलिंदे बाँध रही थी, उन्हें प्रेरणास्रोत बता रही थी। संविधान की शपथ लेकर बने गृह मंत्री सावरकर के ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ को सीढ़ी बना उस पर चढ़कर नट जैसे करतब दिखा रहे थे।

rkpNavneet Mishra

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