किस्सा कुर्सी का

लघुकथा

सुनीता कुमारी
पूर्णियां बिहार

छोटे से राज्य जनविकासपुर में चुनाव का मौसम था। हर गली में पोस्टर, हर चौराहे पर भाषण, और हर घर में बहस—कौन आएगा इस बार सत्ता में?
मुख्यमंत्री राघव सिंह पाँच साल से कुर्सी पर थे। शुरुआत में उन्होंने जनता के लिए बहुत काम किया—सड़कें बनवाईं, अस्पताल खोले, युवाओं को नौकरी दिलवाई। लेकिन धीरे-धीरे कुर्सी का मोह बढ़ता गया। अब उनका मकसद “विकास” नहीं, बल्कि “विजय” रह गया था।
उधर, उनके पुराने साथी अरविंद मिश्रा, जो कभी उनकी ही पार्टी में थे, अब विपक्ष में जाकर ईमानदारी और पारदर्शिता की राजनीति करने का दावा कर रहे थे। जनता में अरविंद की छवि “सच्चे नेता” की बन चुकी थी।
चुनाव की पूर्व संध्या पर एक गाँव में रैली थी। राघव सिंह ने मंच से कहा—
“मैंने आपके गाँव में बिजली लाई, सड़क बनाई, स्कूल खोले। अब आप ही बताइए, मुझसे बेहतर कौन?”
भीड़ में से एक बूढ़ी औरत खड़ी हुई। उसकी आवाज़ काँप रही थी, पर शब्द तेज़ थे—
“साहब, सड़क तो बनी, पर हमारे बेटे की नौकरी अभी भी नहीं लगी। अस्पताल तो बना, पर डॉक्टर कभी नहीं आता। अगर विकास सिर्फ दिखावे में है, तो हम क्या करें उस सड़क का?”
पूरा मैदान सन्न रह गया।
राघव सिंह पहली बार बिना शब्दों के रह गए। उन्होंने उस औरत की आँखों में देखा — वहाँ डर नहीं था, सिर्फ सच्चाई थी।
चुनाव के नतीजे आए — राघव सिंह हार गए।
अरविंद मिश्रा मुख्यमंत्री बने। लेकिन सत्ता में आते ही उन्हें भी वही दबाव, वही स्वार्थ और वही प्रलोभन घेरने लगे।
कुछ महीनों बाद वही बूढ़ी औरत फिर सचिवालय के बाहर दिखी। इस बार उसने कहा—
“बेटा, कुर्सी चाहे किसी की भी हो, अगर नीयत न बदले तो जनता का हाल नहीं बदलता।”
राजनीति में असली जीत चुनाव की नहीं होती — असली जीत जनता के भरोसे की होती है। और जब नेता उस भरोसे को खो देता है, तो उसकी हर कुर्सी खोखली हो जाती है।

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