समाज में बढ़ती “उतारने की प्रवृत्ति”: क्या यह चेतावनी है या परिवर्तन की आहट?

(प्रस्तुति राजकुमार मणि)

हमारा समाज निरंतर विकास की ओर अग्रसर है। तकनीक, बाजार, राजनीति और संस्कृति में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। लेकिन इस विकास की दौड़ में एक प्रवृत्ति बड़ी तेज़ी से उभर रही है — “उतारने की प्रवृत्ति”। यह प्रवृत्ति केवल वस्त्रों तक सीमित नहीं रह गई है, बल्कि अब सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक ढांचे में गहराई तक प्रवेश कर चुकी है।

राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में गिराने-उठाने का खेल वर्तमान राजनीतिक और आर्थिक माहौल में एक-दूसरे को नीचे गिराने और स्वयं को ऊपर दिखाने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। दलों के बीच बयानबाजी, घोटालों का खुलासा, निजी जीवन पर प्रहार और चरित्रहनन जैसे हथकंडे आम हो गए हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के मूल्यों को कमजोर कर सकती है।

अर्थशास्त्रियों के अनुसार, बाजार और सत्ता का चक्र ऐसा है कि जो उठेगा वह गिरेगा और जो गिरेगा, अवसर पाकर उठेगा। लेकिन जब गिराने की प्रवृत्ति पूर्वनियोजित और सुनियोजित हो जाए, तो यह एक खतरनाक संकेत है।

धार्मिक और सांस्कृतिक जगत भी अछूता नहीं धार्मिक संतों, विचारकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच भी वर्चस्व की होड़ दिखने लगी है। कोई किसी की आस्था को चुनौती देता है, तो कोई खुद को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए दूसरों की आलोचना करता है। यह गिराने और नीचे दिखाने की प्रवृत्ति अब आध्यात्मिक धरातल को भी अस्थिर कर रही है।

कपड़ों से शुरू होकर मूल्यों तक यह प्रवृत्ति अब केवल विचारों और स्थितियों तक नहीं रुकी, बल्कि कपड़ों और पहनावे तक जा पहुंची है। समाज में फैशन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर कपड़े उतारने को बढ़ावा मिल रहा है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स और विज्ञापनों में “बोल्डनेस” और “बिना रोक-टोक” की अवधारणा को ग्लैमराइज़ किया जा रहा है।

विशेषज्ञ मानते हैं कि समाज में बदलाव होना चाहिए, लेकिन परंपरा, गरिमा और मूल्यों की बलि देकर नहीं।

बाजार की भूमिका भी अहम मूल्य आधारित समाज निर्माण की बजाय बाजार का ध्यान अब अधिकतर ऐसी चीज़ों पर है, जो सनसनी फैलाएं, चर्चा में रहें और बिक्री बढ़ाएं। विज्ञापन, मनोरंजन और फैशन उद्योगों में “उतारने” को क्रांति या स्वतंत्रता का प्रतीक बताकर प्रस्तुत किया जा रहा है।

समय आ गया है जब समाज को आत्ममंथन करना होगा। क्या हम प्रगति की दिशा में बढ़ रहे हैं, या सिर्फ एक-दूसरे को गिराने की दौड़ में लगे हैं? क्या स्वतंत्रता का अर्थ मूल्यों से मुक्त होना है? “उतारने की प्रवृत्ति” अगर रचनात्मक हो, तो बदलाव का मार्ग बन सकती है, लेकिन यदि यह केवल विघटनकारी रूप ले ले, तो समाज की जड़ें हिल सकती हैं। इसलिए ज़रूरी है कि उतारने और उठाने की प्रक्रिया में विवेक और संतुलन बना रहे।

Editor CP pandey

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