महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)। कभी भारतीय समाज की पहचान माने जाने वाले संस्कार आज कमजोर होते दिखाई दे रहे हैं। परिवार, शिक्षा, परंपरा और नैतिकता जैसे मूल स्तंभ, जिन्होंने पीढ़ियों को दिशा दी, अब समय की तेज रफ्तार और बदलती जीवनशैली की वजह से दरकते दिख रहे हैं। यही कारण है कि समाज अपने मूल्यों से दूर होकर नई खाई की ओर बढ़ता महसूस हो रहा है।
बदलते परिवेश में सबसे बड़ा सवाल यह नहीं है कि संस्कार क्यों बदले, बल्कि यह है कि इन्हें बचाने की जिम्मेदारी कौन लेगा? भौतिकवाद की बढ़ती होड़ ने चरित्र निर्माण, संवेदनशीलता और अनुशासन जैसे मूल्यों को पीछे धकेल दिया है। बच्चों की पहली पाठशाला जहां पहले घर हुआ करती थी, अब उसकी जगह मोबाइल, सोशल मीडिया और उपभोक्तावादी संस्कृति ले रही है। इस बदलाव से पीढ़ियों के बीच संवाद की दूरी बढ़ रही है और मूल्य केवल पुस्तकों तक सिमटते जा रहे हैं।
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एक समय था जब शिक्षा का उद्देश्य संस्कारवान नागरिक तैयार करना था, लेकिन आज शिक्षा का केंद्र केवल नौकरी और प्रतिस्पर्धा बन गया है। सफलता की दौड़ में नैतिकता पीछे छूट रही है। यही कारण है कि समाज में असहिष्णुता, भ्रष्टाचार और हिंसा जैसी प्रवृत्तियाँ तेजी से बढ़ रही हैं। चिंताजनक बात यह है कि समाज इस गिरावट को देखकर भी मौन है। हर कोई जिम्मेदारी दूसरों पर डालता है, लेकिन आत्मचिंतन से बचता है।
अब समय है कि समाज दोबारा संस्कारों को जीवन की नींव के रूप में स्थापित करे। बच्चों को केवल सफल नहीं, बल्कि संवेदनशील और जिम्मेदार नागरिक बनाने की जरूरत है। आधुनिकता और परंपरा का संतुलन ही समाज को गिरती दीवारों से बचा सकता है, वरना अराजकता का खतरा और गहरा हो जाएगा।
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