एक सिंदूरी सुबह

बंगलुरु के मेरे अपार्टमेंट की छोटी सी मगर प्यारी सी बालकनी जिसे हम सब घर वाले बहुत प्यार करते हैं। हमारा हर दिन, सूर्य की पहली किरण और एक नई ऊर्जा के साथ शुरू होता है। प्रकृति से हम सब को बड़ा ही लगाव है। बचपन में मैं एक सरकारी आवास में रहती थी। मेरी माता जी विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास में कार्यरत थी। हमारा आवास अंग्रेजों के समय का बड़ा ऊंचा सा मकान था। ढेरों आम के पेड़ । हमारी मालिन जी की देख-रेख में बहुत ही सुन्दर बाग-बगीचा। रंग बिरंगे फूलों में ढेर सारे पक्षी देखने को मिलते थे।
मेरा परिवार प्रकृति प्रेमी है, खास तौर पर मेरे हमसफर रामेंद्र जी। हमारी बालकनी बहुत बड़ी तो नहीं, मगर ईश्वर को धन्यवाद देने के लिए पर्याप्त है। यहां भी हमने कई पक्षियों को आते देखा है। कबूतर उनमें से प्रमुख हैं जो स्वभाव से अत्यंत उद्दंड भी हैं। सामने स्कूल की छत पर एक चील का परिवार हमेशा दिखता है। बारिश की एक सिंदूरी सुबह तो मोर भी नाचता दिखा, जो बड़ा ही आश्चर्यजनक दृश्य था। कोयल की कूक हर रोज हमारे घर के सामने के पीपल के पेड़ से आती है।
हर सुबह की तरह वो भी एक सिंदूरी सुबह थी जब हमारी बालकनी में पहली बार एक बुलबुल दिखी। फिर क्या, हमारी बालकनी का रंग एकदम दमक उठा। एक तरफ कोयल और दूसरी तरफ बुलबुल । ईश्वर ने वैसे तो हमपर बड़ी कृपा की है पर इस सुन्दर दृश्य को देख मेरा मन प्रफुल्लित हो उठा।
मुझे लगता है कि, जीवन मे हम जो भी ईश्वर से मांगते हैं वो हमारे ( मनुष्य) सीमित सोच का उदाहरण है। ईश्वर की कृपा तो आकाश के जैसी विशाल है, बस हमे उतना ही नहीं देखना चाहिए जितना हमारी बालकनी से दिखता है। क्षितिज के उस पार भी हमें एक सुंदर दुनिया ‍दिखेगी, इसी कामना के साथ समुद्र की किनारे घंटों बिताया था मैंने।

ईश्वर की कृपा की इसी श्रृंखला में थी वो एक और सिंदूरी सुबह, जब मेरी बालकनी में बुलबुल बोल रही थी। फिर क्या, रोज-रोज हमे लुफ्त मिलने लगा। इतना ही नहीं अब तो मीटिंग मीटिंग भी शुरू हो गई थी। ठीक समझे, अब तो बुलबुल दंपत्ति आकर घंटों बात करते थे। मैं और मेरे पतिदेव यही विचार करते थे कि ये लोग बातें क्या करते होंगे। फिर क्या, एक दिन चाय पर चर्चा के दौरान हमारे पतिदेव ने बताया कि ये लोग पेड़ के झुरमुट में बैठे रहते हैं । पास जा कर देखा तो एक खूबसूरत घोंसला तैयार था। हमारी आंखें वैसे ही चमक उठीं जैसे पहली बार मेरे मां बनने की खबर सुन कर हम दोनों की आँखें चमकी थीं। ऐसा लगा जैसे अब घर के बड़े होने के नाते हमें क्या क्या करना चाहिए। हमने अपने बच्चों से कहा उधर मत जाना। हम उस पेड़ में पानी भी बहुत चुपके से डालते थे जिससे कोई आहट न हो। काम वाली को भी उस तरफ जाने से मना कर दिया।
इसी श्रृंखला में फिर एक दिन दो अंडे दिखे उस छोटे से घोंसले में। जब हमने देखा तो आंखों को बड़ा सुकून मिला और फिर कुछ दिन बाद उनमें से दो छोटे छोटे बच्चे निकले। मादा चिड़िया बच्चों के पास बैठी रहती और पिता जी चौकीदारी करते। कई बार जब हम लोग ताक झाक करते तो पिता जी पंख फैलाकर आक्रमण भी करते और नाराज़गी जताते।
ये दृश्य बिलकुल वैसा ही था जैसे जब घर के बड़े हमें और हमारे बच्चों को निहारते हैं तो हमें लगता है कि क्या कर रहे हैं। जब भी हम किसी के भी बच्चों को देखते हैं तो मानो हमारी आंखों में आशा की किरण जाग जाती है, मन प्रफुल्लित हो उठता है और ऐसा लगता है जैसे हमें अपना और अपने बच्चों का बचपन दोनों याद आ गया हो।
छुप छुप कर हम सब चिड़िया के बच्चों को देखते जब उनकी मां उन्हें दाना खिलाती। कभी कभी बच्चे ऐसे शोर मचाते, मानो पूछ रहे हों कि मां कहां गई, हमें भूख लगी है।
फिर एक दिन आई एक और सिंदूरी सुबह, हमने देखा कि बच्चे अब अपने पंख फैलाने लगे थे। जब वो अपना घोंसला छोड़ कर बाहर निकले तो दोनों माता पिता बच्चों को उड़ना सीखते। इतना सुन्दर दृश्य, डाली डाली , पेड़ पेड़, बिल्कुल वैसे ही लग रहा था जैसे हमारी मां हम सब को पहले चलना सिखाती, फिर खाना, क ख ग घ लिखना पढ़ना और जब थोड़े बड़े हुए तो गोल रोटी बेलना। मैं अपने घर की सबसे छोटी थी, जी हां लाडली भी। मां मुझे हमेशा अपने पास सुलाती थी। जब पहली बार घर से बाहर निकले तो बड़ा डर लगा, मैं एन सी सी कैम्प में दस दिन के लिए गई थी । मैं बहुत रोती थी, मेरी बड़ी बहन भी मेरे साथ गई थी, उसे बड़ी हंसी आती थी मगर मुझे और रोना आता था। खैर जीवन इसी का नाम है, अब अपने बच्चों के दूर जाने पे रोना आता है।
मगर पैंतालीस दिन के बाद, जब फिर एक सिंदूरी सुबह आई तो सब कुछ जैसे का तैसा था। बुलबुल भी आई और दिनचर्या भी रोज की तरह ही थी। पर एक चीज नई थी, जो दिल में अनचाहा सा दुःख दे रही थी, वो था पेड़ों के झुरमुट में खाली घोंसला। दिल बड़ा उदास हो गया और फिर याद आए हमारे मां बाप , जो रोज हमारी चीजें देख कर हमें ऐसे ही याद करते हैं । हम भी अपना घोंसला छोड़ कर आ गए आकाश की ऊंचाई नापने। अपने नए परिवार के लिए, एक नया वृक्ष, एक नई बालकनी तलाशने, जहां हम भी अपना घोंसला बना सकें और अपने प्यारे बच्चों को पाल पोस कर बड़ा करें और उन्हें भी अपना घोंसला खुद से बनाने के लिए तैयार कर सकें।

आशा है कि हम अपने बच्चों को इतना प्यार दे सकें कि वो जहां भी जाएं उन्हें हमारे बनाए हुए घोंसले भी याद आएं और ये सिंदूरी सुबह भी।

डॉ प्रियंका सिंह

rkpnews@somnath

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