नारे गूंजे, नीतियां डगमगाईं: विकास की राह में क्यों उलझा शासन का असली एजेंडा?

कैलाश सिंह

महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा) भारतीय लोकतंत्र में नारे अक्सर जनभावनाओं को जगाने का आसान साधन बने हैं, लेकिन जब शासन की दिशा नीतिगत मजबूती के बजाय नारेबाज़ी पर टिकने लगे, तो विकास स्वतः ही पटरी से उतरने लगता है। यही हकीकत आज के राजनीतिक परिदृश्य में साफ दिखाई देती है—मंचों पर गूंजते नारे तेज़ हो गए, लेकिन नीतियों की कदमताल कमज़ोर पड़ती गई। नीतियों की कमजोरी और नारेबाज़ी आज शासन की सबसे बड़ी चुनौती बन चुकी है।

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जनता को विश्वास था कि ठोस और दूरगामी नीतियां उनकी रोज़मर्रा की जिंदगी में सुधार लाएंगी, लेकिन हकीकत इसके विपरीत निकली। नारे उम्मीद जगाते रहे, जबकि नीतियां फ़ाइलों और घोषणाओं में उलझकर रह गईं। बेरोज़गारी, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दे भाषणों के शोर में दब गए, और सरकारें अपनी उपलब्धियों को प्रचार की चमक से सजाने में जुटती रहीं।

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वास्तविकता यह है कि नीति-निर्माण का आधार वैज्ञानिक सोच, पारदर्शिता और जवाबदेही में निहित होता है। लेकिन जब प्राथमिकता लोकप्रियता हासिल करने, भावनाओं को साधने और त्वरित राजनीतिक लाभ लेने की हो, तो नीति-प्रक्रिया कमजोर पड़ जाती है। योजनाएं बनती हैं, लॉन्चिंग की तस्वीरें बनती हैं, लेकिन क्रियान्वयन की रफ्तार या तो बेहद धीमी रहती है या आधे रास्ते में ही दम तोड़ देती है। नतीजा यह कि जनता के हाथ आते हैं—अधूरे वादे, अधूरे प्रोजेक्ट और अधूरी उम्मीदें।

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जब सरकार की पहचान नीतियों से नहीं, बल्कि नारों से होने लगे, तो यह लोकतांत्रिक ढांचे के लिए चिंताजनक संकेत है। जनता यह सवाल पूछने लगती है कि आखिर विकास ज़मीन पर क्यों नहीं उतरता? क्यों पोस्टरों पर प्रगति दिखती है, लेकिन गांवों और शहरों की असल तस्वीर वही रहती है?

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लोकतंत्र का आधार नारों की गूंज नहीं, बल्कि नीतियों की मजबूती है। नारे एक क्षणिक उत्साह पैदा करते हैं, जबकि नीतियां भविष्य की रूपरेखा तय करती हैं। इसलिए जरूरत है कि सरकारें नारे आधारित राजनीति से आगे बढ़कर वास्तविक, समयबद्ध और लक्ष्य आधारित नीति-प्रणाली अपनाएं। जब नीतियां मजबूत होंगी, पारदर्शिता बढ़ेगी और जवाबदेही सुनिश्चित होगी, तब विकास स्वतः ही दिखाई देगा—नारे अपने आप सार्थक हो जाएंगे।

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सच्चा विकास वही है जिसे जनता महसूस करे, न कि जिसे सिर्फ मंचों और पोस्टरों पर लिखा जाए। इसलिए समय आ गया है कि नीतियों की कमजोरी और नारेबाज़ी के इस चक्र को तोड़ा जाए और शासन को वास्तविक नीतिगत सुधारों की ओर मोड़ा जाए। यही लोकतंत्र की असली जीत होगी और जनता के विश्वास को मजबूत करने का रास्ता भी।

Editor CP pandey

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