भारतीय राजनीति में राजनीतिक व्यंग्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सत्ता के चरित्र, उसके अहंकार और इतिहास के पुनर्लेखन की प्रवृत्तियों को उजागर करने का प्रभावशाली माध्यम रहा है। विष्णु नागर और राजेंद्र शर्मा जैसे वरिष्ठ व्यंग्यकारों की रचनाएं आज के दौर में और अधिक प्रासंगिक हो उठी हैं, जब सत्ता, राष्ट्रवाद और इतिहास को एक नए फ्रेम में ढालने की कोशिशें खुलकर सामने आ रही हैं।
सत्ता की ‘पावर’ और व्यंग्य का आईना
विष्णु नागर का व्यंग्य ‘नंबर बता, नंबर’ सत्ता की उस मानसिकता पर करारा प्रहार करता है, जहां पावर स्वयं बीमारी बन जाती है। व्यंग्य में जिस तरह ‘पावर’ से अकड़ा हुआ शासक न उठ पाता है, न बैठ पाता है, वह लोकतंत्र में सत्ता के अत्यधिक केंद्रीकरण का प्रतीक बन जाता है। सत्ता के पास सब कुछ होते हुए भी समाधान का अभाव दिखाई देता है।
डॉक्टर, वैद्य, विदेशी विशेषज्ञ और अंततः ‘सबसे पावरफुल’ व्यक्ति तक पहुंचने की कोशिश — यह पूरा घटनाक्रम इस सच्चाई को उजागर करता है कि सत्ता जब संवाद, संवेदनशीलता और जवाबदेही खो देती है, तब उसके पास केवल आदेश और नंबर ही बचते हैं। “एक नंबर बता, नंबर” जैसी पंक्तियां आज की राजनीतिक संस्कृति में नागरिक और सत्ता के रिश्ते को बेहद सटीक ढंग से परिभाषित करती हैं।
इतिहास और राष्ट्रवाद पर पुनर्लेखन की राजनीति
राजेंद्र शर्मा का व्यंग्य ‘सारे के सारे बदल डालेंगे नाम’ सीधे तौर पर उस राजनीतिक प्रवृत्ति को रेखांकित करता है, जिसमें इतिहास, राष्ट्रगीत, राष्ट्रगान और राष्ट्रपिता तक को नए सांचे में ढालने की कोशिश हो रही है। व्यंग्य में वंदे मातरम्, जन गण मन, नेहरू, गांधी और सरदार पटेल जैसे ऐतिहासिक संदर्भों के जरिए यह सवाल उठाया गया है कि क्या राष्ट्रभक्ति का पैमाना सत्ता तय करेगी?
लेख इस बात को उजागर करता है कि किस तरह इतिहास की जटिलताओं को सरल नारों में बदल दिया जाता है। व्यंग्यकार यह दिखाता है कि आज की राजनीति में ‘मजबूर’ होना कमजोरी और ‘सफल’ होना देशभक्ति का प्रमाण बना दिया गया है। यही वह बिंदु है, जहां राजनीतिक व्यंग्य इतिहास की तथाकथित आधिकारिक व्याख्या पर सवाल खड़ा करता है।
नाम बदलने से राष्ट्र बदलता है क्या?
व्यंग्य का सबसे तीखा हिस्सा वह है, जहां हर चीज़ का नाम बदलने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष किया गया है — इमारतें, योजनाएं, विचार और अब इतिहास के नायक। सवाल यह नहीं कि नाम बदले जाएं या नहीं, सवाल यह है कि क्या नाम बदलने से सामाजिक यथार्थ, आर्थिक विषमता और लोकतांत्रिक मूल्यों में भी बदलाव आता है?
राजनीतिक व्यंग्य यहां एक चेतावनी की तरह सामने आता है। यह बताता है कि जब सत्ता केवल प्रतीकों और नामों में उलझ जाती है, तब असल मुद्दे — बेरोजगारी, महंगाई, सामाजिक न्याय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता — हाशिये पर चले जाते हैं।
लोकतंत्र में व्यंग्य की भूमिका
आज के दौर में, जब आलोचना को देशद्रोह और सवाल पूछने को विरोध माना जाने लगा है, राजनीतिक व्यंग्य लोकतंत्र की अंतिम सांस की तरह महसूस होता है। यह नारे नहीं देता, बल्कि सोचने पर मजबूर करता है। न तो यह सीधा आरोप लगाता है और न ही उपदेश देता है, बल्कि हास्य के जरिए सत्ता के डर को बेनकाब करता है।
विष्णु नागर और राजेंद्र शर्मा की रचनाएं यह साबित करती हैं कि व्यंग्य केवल साहित्य नहीं, बल्कि राजनीतिक हस्तक्षेप है। यह पाठक को हंसाते-हंसाते उस बिंदु तक ले जाता है, जहां हंसी अचानक एक असहज सवाल में बदल जाती है।
राजनीतिक व्यंग्य आज के भारत में केवल लेखन की विधा नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक प्रतिरोध का स्वर है। सत्ता की पावर, इतिहास का पुनर्लेखन और राष्ट्रवाद की नई परिभाषाओं के बीच, व्यंग्य वह आईना है जिसमें सच धुंधला नहीं होता। सवाल यही है कि क्या हम इस आईने में झांकने का साहस रखते हैं?
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