रूढ़ियों का बोझ अब कितना और? बदलते समय में बदलाव की पुकार

कैलाश सिंह

महराजगंज(राष्ट्र की परम्परा)। समय तेज़ी से बदल रहा है, समाज विकास की नई राहें पकड़ चुका है, लेकिन विडंबना यह है कि कई सामाजिक रूढ़ियां आज भी लोगों की सोच और जीवन दोनों पर भारी पड़ रही हैं। परंपरा और संस्कार के नाम पर ढोई जाने वाली ये पुरानी धारणाएं आधुनिक समाज की रफ्तार को लगातार रोक रही हैं। सवाल यही है—रूढ़ियों का बोझ आखिर कब उतरेगा?
आज भी कई घरों में बेटा-बेटी में फर्क किया जाता है, जातिगत भेद-भाव किसी न किसी रूप में मौजूद है, महिलाओं की भूमिका को लेकर पुरानी सोच कायम है और अंधविश्वास लोगों के निर्णयों को प्रभावित करता है। डिजिटल युग में पहुंच चुके समाज की यह तस्वीर बताती है कि तकनीक तो आगे बढ़ी है, पर सोच अब भी कई जगह अतीत में अटकी हुई है।
विशेषज्ञों के अनुसार,समाज की जड़ें तब तक मजबूत नहीं हो सकतीं, जब तक लोग रूढ़ियों के दबाव से बाहर नहीं निकलते। इन रूढ़ियों के कारण शिक्षा समानता, आज़ादी और अवसर जैसे मूलभूत अधिकार प्रभावित होते हैं। युवा पीढ़ी नई दिशा देना चाहती है, लेकिन परिवार और समाज कभी-कभी पुरानी धारणाओं की बेड़ियां उनके कदम रोक देती हैं। सबसे बड़ी चुनौती यह है कि रूढ़ियों को अक्सर परंपरा की रक्षा का नाम देकर सही ठहराया जाता है,जबकि परंपरा का मूल उद्देश्य समाज को जोड़ना है, तोड़ना नहीं। रूढ़ियां सामाजिक विभाजन को गहरा करती हैं और प्रगति की रफ्तार को धीमा करती हैं।बदलता समय अब स्पष्ट संदेश दे रहा है—सोच बदलने का समय आ चुका है। जागरूकता, शिक्षा और संवाद इन रूढ़ियों को खत्म करने की सबसे मजबूत चाबी हैं। समाज के हर वर्ग को आगे आकर यह तय करना होगा कि कौन-सी परंपराएं हमें जोड़ती हैं और कौन-सी रूढ़ियां हमें पीछे धकेल रही हैं।
अगर भारत को वास्तव में विकसित राष्ट्र बनना है, तो पुराने बोझ को उतारकर आगे बढ़ना ही होगा। बदलाव की पुकार साफ सुनाई दे रही है—अब जरूरत है इसे स्वीकार करने और क्रियान्वित करने की।

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