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दीवाली मुबारक

“प्यार की जोत से घर- घर है चराग़ाँ वर्ना,
एक भी शम्अ न रौशन हो हवा के डर से”

शाकिब जलाली दरबार ए मुग़लिया की दीवाली दीवाली का जश्न पौराणिक के साथ-साथ भारतीय संस्कृति की विरासत का भी प्रतीक है. शास्त्रों में भी इसे मान्यता भी प्राप्त है और इस त्योहार का मूल तत्व बुराई पर अच्छाई की विजय है. दीवाली प्रेम,भाई-चारा और उल्लास का संदेश पूरी दुनियां को दे रही है और एक ऐसे समाज की कल्पना को साकार करने का प्रयास कर रही है जहां मनुष्य से मनुष्य के बीच नफरत नहीं बल्कि मोहब्बत हो.पर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि दीवाली को भव्यता और आधुनिक स्वरूप प्रदान करने में मुग़लों का योगदान उल्लेखनीय रहा है.मुग़ल दरबार में जिस साझी विरासत का जन्म हुआ दीवाली ने उसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
वैसे तो सभी भारतीय त्योहारों ने हिंदुस्तान में प्रवेश के समय से ही तुर्कों में गहरी दिलचस्पी पैदा किया परन्तु कृष्ण जन्माष्टमी,दशहरा,बसंत पंचमी, होली और दीवाली ने उन्हें खासकर आकर्षित किया. ये पर्व तत्कालीन दरबार का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए. इसे ही अमीर खुसरो ने हिंदुस्तानी तहज़ीब कहा जो हिंदुस्तान को सारी दुनियां से श्रेष्ठ बनाता है.तुर्क और मुग़ल इस तहज़ीब में ऐसे रंगे की उनकी अलग पहचान कर पाना मुश्किल हो गया.इसी मेल-जोल की परम्परा ने हमें पूरी दुनियां पर मकबूलियत प्रदान की. भारत में तुर्क सुल्तानों के भारतीय त्योहार मनाने के दृष्टांत प्रारम्भ से ही मिलते हैं.14वीं शताब्दी में मुहम्मद बिन तुग़लक़ दीवाली का त्योहार अपने महल में मनाता था.उसदिन महल को खूबसूरती से सजाया जाता और सुल्तान अपने दरबारियों को नए-नए वस्त्र प्रदान करता था तथा एक शानदार दावत का भी आयोजन किया जाता था. मुग़ल बादशाह बाबर के समय पूरे महल को दुलहिन की तरह सजा कर पंक्तियों में लाखों दीये जलाए जाते थे और इस अवसर पर शहंशाह गरीबों को नए कपड़े और मिठाइयां बाँटता .सम्राट हुमांयू ने अपने पिता की विरासत को न केवल बरकरार रखा बल्कि साथ-साथ महल में लक्ष्मी पूजा की भी शुरूआत किया.पूजा के दौरान एक विशाल मैदान में आतिशबाजी का आयोजन किया जाता था. गरीबों को सोने के सिक्के बांटे जाते और तदुपरांत 101 तोपों की सलामी दी जाती थी.
मुगल शहंशाह अकबर के समय में ‘जश्न-ए-चिरागा’ होता था। इतिहास में अकबर और जहांगीर के समय ‘जश्न-ए-चिरागा’ मनाए जाने का उल्लेख ऐतिहासिक ग्रंथो में बहुतायत से मिलता है। आगरा किला दीयों की रोशनी में दमक उठता था।

अकबर के दरबारी अबुल फजल ने ‘आइन-ए-अकबरी’ में लिखा है कि अकबर दीवाली पर अपने राज्य में मुंडेर पर दीपक जलवाता था. महल में पूजा दरबार का आयोजन होता था। ब्राह्मण दो गायों को सजाकर शाही दरबार में आते और शहंशाह को आशीर्वाद देते.सम्राट उन्हें मूल्यवान उपहार प्रदान करता था.दीवाली के लिए महलों की सफाई और रंग रोगन महीनों पहले से शुरू हो जाता था.अपने कश्मीर प्रवास के दौरान अकबर ने वहां नौकाओं, घरों,झीलों और नदी तट पर दीये जलाने का फरमान जारी किया.अपने शहजादों और शहजादियों को जुए खेलने की भी इजाजत प्रदान की.अकबर ने गोवर्धन पूजा तथा बड़ी दीवाली के साथ छोटी दीवाली मनाने की भी शुरुआत की.
अकबर ने ही आकाश दीये की भी परम्परा शुरु की जो दीवाली की पूरी रात जलता था.इसमें 100 किलो से ज्यादा रुई और सरसों का तेल लगता था.दीये में रुई की बत्ती और तेल डालने के लिए सीढ़ी का इस्तेमाल किया जाता था. दरबार में फ़ारसी में अनुदित रामायण का पाठ भी होता था.पाठ के उपरांत दरबार में राम के अयोध्या वापसी का नाट्य मंचन होता फिर आतिशबाजी का दौर शुरू होता था.इस अवसर पर गरीबों को कपड़े,धन और मिठाइयां वितरित की जाती थी.अकबर ने राम सिया की को प्रदर्शित करता हुआ सिक्का भी जारी किया.
मुगल शहंशाह जहांगीर ने अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-जहांगीरी’ में वर्ष 1613 से 1626 तक अजमेर में दीपावली मनाए जाने का जिक्र किया है. जहांगीर दीपक के साथ-साथ मशाल भी जलवाता था और अपने सरदारों को नज़राना देता था.आसमान में 71 तोपें दागी जाती थीं तथा बारूद के पटाखे छोड़े जाते थे.फकीरों को नए कपड़े व मिठाइयां बांटी जातीं. तोप दागने के बाद आतिशबाजी होती थी. मुगलकालीन पेंटिंग्स में भी दीवाली का जश्न बहुतायत से मिलता है.
शाहजहाँ के समय भी यह त्योहार परंपरागत तरीके से मनाया जाता रहा.दीवाली के दिन शहंशाह को सोने-चांदी से तौला जाता और इसे गरीब जनता में बांट दिया जाता था.मुग़ल बेगमें और शहजादियाँ आतिशबाजी देखने के लिए कुतुबमीनार जाती थीं. शाहजहाँ राज्य के 56 जगहों से अलग-अलग तरह के पकवान मंगा कर 56 तरह का थाल सजवाता था.40 फिट ऊंची भव्य आतिशबाजी का मनोहारी दृश्य देखने के लिए दूरस्थ इलाकों से लोग आते थे.
औरंगजेब के समय दीवाली ही नहीं बल्कि मुस्लिम त्योहारों में भी कुछ फीकापन आ गया.
मुहम्मद शाह दीवाली के मौके पर अपनी तस्वीर बनवाता था. उसने अकबर तथा शाहजहाँ से भी अधिक भव्यता इस त्योहार को प्रदान की.सजावट और आतिशबाजी के अलावा शाही रसोई में नाना प्रकार के पकवान बनाये जाते थे जिसे जन-साधारण में बांटा जाता था.
बहादुर शाह जफर भी दीवाली के दिन लक्ष्मी पूजा के बाद दरबार में आतिशबाजी और मुशायरा का आयोजन करता था।गले मिलने की परंपरा सम्भवतः मुहम्मद शाह के दौर में शुरू हुई जो इस त्योहार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गयी.
आज इस विरासत पर कुछ लोग सवाल उठाते हैं.ये कौन है जो इन मूल्यों को नकार रहे है.हमें इनसे सावधान रहने की जरूरत है.यही मूल्य हमें दुनिया में अलग पहचान देते है और इन्ही पर विश्वास करके हमनें मिल-जुल कर आजादी की लड़ाई लड़ी.इन्हें ही संविधान में जगह दी गई और उसकी प्रस्तावना में यही मूल्य स्वतंत्रता, समता,बंधुता और न्याय बनकर उभरे.आज हमें इनकी हिफाजत करने और इनके पक्ष में खड़ा होने के लिए तैयार रहना होगा अन्यथा इतिहास हमें माफ नहीं करेगा.

डॉ मोहम्मद आरिफ़

(बनारस)

Karan Pandey

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