डॉ.सतीश पाण्डेय
महराजगंज(राष्ट्र की परम्परा)। समाज का ताना-बाना तभी मजबूत रहता है जब लोगों के बीच भरोसा, संवाद और सहयोग बना रहे। लेकिन हाल के वर्षों में स्थिति चिंताजनक रूप से बदलती दिख रही है। रिश्तों में खटास, समुदायों में अविश्वास, बढ़ता तनाव और छोटी-छोटी बातों पर भड़कती घटनाएं—ये सब इस बात का संकेत हैं कि समाज की बुनियाद कहीं न कहीं कमजोर पड़ रही है।
गांव से लेकर कस्बों और शहरों तक—हर जगह आपसी मनमुटाव, सामाजिक दूरी और असहिष्णुता की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। पड़ोसी पड़ोसी से कटे हुए, मोहल्ले में संवाद खत्म, परिवारों में विवाद और युवा पीढ़ी अकेलेपन का शिकार।
सवाल बड़ा है—आखिर इस दरार के लिए जिम्मेदार कौन?
विशेषज्ञ मानते हैं कि आज की तेज रफ्तार जिंदगी,तकनीक की बढ़ती पकड़ और सामाजिक मूल्यों में गिरावट ने लोगों के बीच के प्राकृतिक संबंध कमजोर किए हैं। सोशल मीडिया ने लोगों को जोड़ने से ज़्यादा दूर किया है—जहां संवाद कम और टकराव ज्यादा दिखाई देता है।
वहीं, प्रशासन और समाजसेवी संस्थाओं की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। समाज में बढ़ती समस्याओं को समय रहते पहचाना नहीं गया, न समाधान की दिशा में गंभीर प्रयास हुए। शिक्षा व्यवस्था में नैतिक मूल्यों का क्षरण, बढ़ती आर्थिक असमानता और स्थानीय स्तर पर संवाद मंचों की कमी स्थिति को और बिगाड़ रही है।
स्थानीय घटनाओं की भीड़, छोटी-छोटी बातों पर बढ़ते विवाद और कानून-व्यवस्था की चुनौती इस दरार को और चौड़ा कर रही है। आम जनता मायूस है—ना समझ पाती है कि किस पर भरोसा करे, ना यह कि समस्या कहां से शुरू हुई। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न है—दोष तय कौन करेगा? जब तक समाज के हर स्तर पर जिम्मेदारी तय नहीं होगी—परिवार, शिक्षा, प्रशासन, समुदाय और नागरिक—तब तक हालात सुधरना मुश्किल हैं।समाज को जोड़ने के प्रयास तभी प्रभावी होंगे जब संवाद को बढ़ाया जाए, सामूहिक कार्यक्रमों को प्रोत्साहन मिले और विभागीय स्तर पर जागरूकता अभियान चलाए जाएं।
समाज टूटे नहीं, इसके लिए ज़रूरी है कि हम अपने रिश्तों, व्यवहार और जिम्मेदारियों की ओर फिर से लौटें। क्योंकि अगर तानाबाना एक बार बिखर गया, तो उसकी मरम्मत मुश्किल नहीं—नामुमकिन हो जाती है।
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