मंत्र से सूत्र तक: भारतीय चेतना की विज्ञान बनती यात्रा

जहां ध्यान, साधना और ऋषि-दृष्टि ने आधुनिक विज्ञान की वैचारिक नींव रखी — अध्यात्म और विज्ञान के संगम से मानव कल्याण की दिशा

कैलाश सिंह

महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)।मानव सभ्यता का इतिहास केवल औजारों, तकनीक और मशीनों के विकास तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मानव चेतना के क्रमिक विस्तार की भी कहानी है। यह यात्रा मंदिरों की घंटियों, मंत्रोच्चार और साधना से शुरू होकर आज प्रयोगशालाओं के जटिल सूत्रों और समीकरणों तक पहुंच चुकी है। जिसे कभी केवल आध्यात्म कहा गया, वही आज विज्ञान की भाषा में समझा और स्वीकारा जा रहा है।
प्राचीन भारतीय ऋषियों ने प्रकृति और ब्रह्मांड को जानने के लिए किसी प्रयोगशाला या यंत्र का सहारा नहीं लिया। उन्होंने ध्यान, साधना और आत्म अनुभूति को ज्ञान का माध्यम बनाया। वेदों और उपनिषदों में परमाणु, ऊर्जा, समय, आकाश और चेतना जैसे तत्वों पर जिस गहराई से विचार किया गया, वह आज भी आधुनिक विज्ञान को चकित करता है। हजारों वर्ष पूर्व कही गई ये बातें आज क्वांटम भौतिकी, न्यूरोसाइंस और ब्रह्मांड विज्ञान के सिद्धांतों से मेल खाती दिखाई देती हैं। आध्यात्म ने मनुष्य को भीतर झांकने की दृष्टि दी, जबकि विज्ञान ने बाहरी जगत को मापने और समझने की पद्धति सिखाई। दोनों का उद्देश्य एक ही है—सत्य की खोज। अंतर केवल मार्ग का है। जहां अध्यात्म अनुभूति और साधना के सहारे आगे बढ़ता है, वहीं विज्ञान प्रयोग, परीक्षण और प्रमाण को आधार बनाता है। वास्तव में ये दोनों मार्ग एक ही लक्ष्य की ओर जाने वाली समानांतर धाराएं हैं।
आज आधुनिक विज्ञान यह मानने लगा है कि सृष्टि की मूल इकाइयां चेतना, ऊर्जा और कंपन हैं। यही विचार उपनिषदों में “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” जैसे सूत्रों के माध्यम से व्यक्त किए गए थे। विज्ञान मानो उसी बिंदु पर लौट रहा है, जहां से ऋषियों की यात्रा आरंभ हुई थी।विडंबना यह है कि वर्तमान समय में विज्ञान को प्रगतिशील और अध्यात्म को पिछड़ा बताने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। जबकि सच्चाई यह है कि विज्ञान बिना अध्यात्म के दिशाहीन हो सकता है और अध्यात्म बिना विज्ञान के अंधविश्वास में बदल सकता है। मानव कल्याण के लिए दोनों का संतुलन आवश्यक है।
विज्ञान बाहर के सत्य को खोजता है, अध्यात्म भीतर के—दोनों मिलें तो मानवता का भविष्य सुरक्षित हो सकता है। अंततः, अध्यात्म से विज्ञान तक का यह सफर किसी टकराव की कथा नहीं, बल्कि मानव चेतना के विस्तार की स्वाभाविक यात्रा है—जहां मंत्र धीरे-धीरे सूत्र बनते हैं और अनुभूति प्रमाण का रूप ले लेती है।

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