कैसे कैसे काण्ड और घोटाले होते हैं,
अब सब कुछ ऑनलाइन भी होता है,
अनैतिकता का चेहरा नहीं उजागर हो
इसलिए मिलना ज़ुलना नहीं होता है।
नैतिकता का यही तक़ाज़ा है कि
इधर उधर के कापी पेस्ट भेजने के
बजाय समय निकालें, अपनों को
जाकर मिलें और चेहरा दिखलायें।
आँखों से आँखें मिलने पर नैतिक
मूल्यों का एहसास सदा होता है,
छद्म और पाखण्ड उजागर होंगे,
सामाजिक शुचिता उत्थान होता है।
कृत्रिम संदेशों की बाढ़ आ रही है,
लोगों के मोबाइल हैंग हो जाते हैं,
अब तो आने वाले मैसेज को पढ़ने
के बजाय सीधे डिलीट कर देते हैं।
ये अनुभव एवं विचार कई लोगों के
हैं, आप सभी भी सहमत तो होंगें ही,
और आप सहमत हों तो ‘आदित्य’
इसे आगे बढ़ाने में सहयोग करेंगे ही।
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