“अति स्वतंत्रता या संस्कारों की हार? सोशल मीडिया की चकाचौंध में खोती जा रही मानवता”

आज के डिजिटल युग में जब सोशल मीडिया, इंस्टाग्राम रील्स और वेब सीरीज़ नई पीढ़ी के आदर्श बन चुके हैं, तब सवाल उठना स्वाभाविक है — क्या हम आधुनिकता के नाम पर अपनी संस्कृति, मर्यादा और नैतिकता को खो रहे हैं? अश्लीलता, फूहड़पन और “कथित आज़ादी” के नाम पर फैलती मानसिक विषाक्तता अब केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज के चरित्र पर चोट बन चुकी है। मीडिया में बलात्कार जैसी संवेदनशील घटनाओं को “न्यूज़ सेंसेशन” बना देना, फिल्मों में नग्नता को “कला की अभिव्यक्ति” कहना — यह सब कहीं न कहीं इंसानियत की जड़ों को कमजोर कर रहा है।

लेखक — राजकुमार मणि त्रिपाठी

  1. सोशल मीडिया: मनोरंजन या मानसिक प्रदूषण का अड्डा?
    इंस्टाग्राम, फेसबुक और यूट्यूब जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स आज “स्वतंत्र अभिव्यक्ति” के नाम पर वह सब दिखा रहे हैं, जो समाज में कभी चर्चा योग्य भी नहीं माना जाता था। कुछ सेकेंड की रील्स में शरीर प्रदर्शन, गाली-गलौज और फूहड़ हरकतें “ट्रेंड” बन चुकी हैं।
    नवयुवक और किशोर इन दृश्यों से प्रभावित होकर “कूल” और “बोल्ड” बनने की कोशिश में अपने मूल संस्कारों से दूर जा रहे हैं। कई मामलों में यह “ट्रेंड” अपराध की दिशा में पहला कदम बन रहा है। जब सोशल मीडिया पर अश्लीलता को “स्वतंत्रता” का नाम दिया जाता है, तो सीमाओं की परिभाषा मिट जाती है।
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  3. फिल्मों और वेब सीरीज़ में बिक रही “संवेदना”
    आज फिल्में और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स समाज के आईने की जगह “बाजार” बन गए हैं।
    फिल्मकार यह भूल चुके हैं कि जो वे पर्दे पर दिखा रहे हैं, वही समाज में आदर्श बन रहा है।
    महिला किरदारों को “वस्तु” की तरह दिखाना, अपराध को “साहस” के रूप में पेश करना — यह सब मानसिक संतुलन को तोड़ रहा है।
    उदाहरण के तौर पर, हाल की कई चर्चित वेब सीरीज़ ने यौन अपराधों, हिंसा और अपराधी मानसिकता को “रोमांच” के रूप में दिखाया। परिणाम — युवाओं में अपराध और हिंसा के प्रति संवेदनशीलता खत्म हो रही है।
    वो सोचते हैं, “सब चलता है”, जबकि वास्तविकता में ये विचार ही समाज में बलात्कार, छेड़खानी और शोषण जैसी घटनाओं को बढ़ावा दे रहे हैं।
  4. मीडिया की भूमिका: सूचना या सनसनी?
    समाचार माध्यमों की जिम्मेदारी है कि वे समाज में चेतना और जागरूकता फैलाएं।
    लेकिन दुर्भाग्य से, आज का मीडिया “रेप”, “मर्डर”, “स्कैंडल” जैसी खबरों को टीआरपी की दौड़ में मसालेदार बनाकर परोस रहा है।
    सुर्खियाँ इस तरह बनाई जाती हैं कि दर्द से ज्यादा उत्तेजना पैदा हो।
    बलात्कार पीड़िताओं की निजी जानकारी, चेहरे या पारिवारिक पृष्ठभूमि को बार-बार दिखाना क्या मानवता है?
    क्या यह “न्याय” की दिशा में कदम है या “क्लिकबेट” का खेल?
    इस तरह की रिपोर्टिंग समाज में भय और असंवेदनशीलता दोनों को बढ़ाती है।
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  6. एक वर्ग इसे केवल “खबर” समझता है, जबकि दूसरा उसी खबर को मनोरंजन की तरह देखता है।यह विडंबना नहीं तो और क्या है?
  7. परिवार में घटती संवाद की संस्कृति
    कभी घरों में बड़ों की नसीहतें, संस्कार और अनुशासन बच्चों के व्यक्तित्व का हिस्सा होते थे।
    अब मोबाइल स्क्रीन ने वह संवाद खत्म कर दिया है।
    “प्राइवेसी” और “पर्सनल स्पेस” के नाम पर बच्चे परिवार से अलग-थलग होते जा रहे हैं।
    जब रोक-टोक होती है, तो वही बच्चे “स्वतंत्रता पर हमला” मानकर विरोध दर्ज करते हैं — कई बार झूठे मुकदमे तक दर्ज करवा देते हैं।
    यह स्थिति केवल परिवार को नहीं, पूरे समाज को कमजोर बना रही है।
    क्योंकि जो पीढ़ी अपने माता-पिता पर भरोसा नहीं रखती, वह समाज के नियमों का सम्मान कैसे करेगी?
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  9. संस्कृति बनाम अति-स्वतंत्रता: संतुलन की जरूरत
    “स्वतंत्र विचारधारा” तब तक सुंदर है, जब तक वह मर्यादा और जिम्मेदारी के साथ जुड़ी हो।
    लेकिन जब स्वतंत्रता “अति” में बदल जाती है, तो वही पतन का कारण बनती है।
    संस्कृति हमें संयम सिखाती है, पर सोशल मीडिया हमें भड़काता है — “जो मन में आए करो”।
    नतीजा, आत्मसंयम खत्म और स्वार्थ की भावना हावी।
    यह याद रखना होगा कि “अभिव्यक्ति की आज़ादी” और “अश्लीलता” में बारीक लेकिन जरूरी फर्क है।
    अगर इस फर्क को मिटा दिया गया, तो समाज केवल आधुनिक नहीं, “निर्लज्ज” भी कहलाएगा।
  10. निंदक नियरे रखिए: पर आलोचना की संस्कृति कहाँ गई?
    कबीर दास ने कहा था — “निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय।”
    अर्थात जो आपकी आलोचना करता है, वह आपको सुधारता है।
    लेकिन आज की दुनिया में “आलोचना” को “हेट” मान लिया गया है।
    जो भी गलत दिखाए, उसे ट्रोल कर दिया जाता है।
    पर यह भूल जाते हैं कि बिना आलोचना के सुधार संभव नहीं।
    जब समाज आलोचना से डरने लगे, तो गलतियाँ आदर्श बन जाती हैं।
  11. जिम्मेदारी किसकी है?
    अब प्रश्न यह उठता है — आखिर इन हालातों के लिए कौन जिम्मेदार है?
    सरकार, मीडिया, सोशल प्लेटफॉर्म्स या आम जनता?
    उत्तर सरल है — सबकी साझा जिम्मेदारी है।
    सरकार को चाहिए कि सोशल मीडिया पर अश्लील और भ्रामक कंटेंट के खिलाफ सख्त नियम लागू करे।
    मीडिया संस्थानों को अपनी खबरों में “संवेदना” को प्राथमिकता देनी चाहिए।
    और समाज को — खुद से शुरुआत करनी चाहिए।
    घर-परिवार में संवाद बढ़े, बच्चों को स्क्रीन नहीं संस्कार दिए जाएँ,
    “लाइक” और “फॉलो” के बजाय “मूल्य” और “मर्यादा” सिखाई जाए — यही समाधान है।
  12. मानवता को बचाने की दिशा में कदम
  13. डिजिटल साक्षरता और नैतिक शिक्षा:
    स्कूलों में केवल तकनीक नहीं, डिजिटल नैतिकता भी सिखाई जानी चाहिए।
    बच्चों को यह समझाया जाए कि हर ऑनलाइन कंटेंट वास्तविक जीवन में असर डालता है।
  14. मीडिया में जिम्मेदारी:
    समाचार संस्थानों को बलात्कार जैसी घटनाओं की रिपोर्टिंग में संवेदनशीलता बरतनी चाहिए।
    अपराध को रोमांच नहीं, सामाजिक चेतावनी के रूप में प्रस्तुत करें।
  15. परिवार में संवाद:
    माता-पिता बच्चों से दोस्ताना व्यवहार करें, ताकि वे अपनी उलझनों को साझा कर सकें।
    घरों में चर्चा का माहौल बनना चाहिए, न कि चुप्पी का।
  16. सोशल मीडिया नियंत्रण:
    सरकार को ऐसे एल्गोरिद्म और फ़िल्टर लागू करने चाहिए, जो अश्लील या हिंसक कंटेंट को स्वतः रोक सकें।
    प्लेटफॉर्म्स पर आयु-सीमा और रिपोर्टिंग व्यवस्था को और सख्त बनाया जाए।
  17. संस्कारों की पुनर्स्थापना:
    मंदिर, गुरुकुल, और सामाजिक संगठनों के माध्यम से “संस्कार सप्ताह” या “परिवार संवाद दिवस” जैसे कार्यक्रम आयोजित किए जाएँ।
    इससे समाज में “मानवता” के बीज पुनः बोए जा सकते हैं।
  18. निष्कर्ष: आधुनिकता जरूरी, पर मर्यादा सर्वोपरि
    हम आधुनिक हों, यह समय की माँग है,
    लेकिन अगर आधुनिकता के नाम पर हम अपनी संस्कृति, नैतिकता और मानवता खो दें,
    तो वह प्रगति नहीं, पतन है।
    आज जरूरत है एक “संतुलित स्वतंत्रता” की —
    जहाँ विचारों की आज़ादी भी हो, पर मर्यादा की सीमा भी बनी रहे।
    जहाँ अभिव्यक्ति का हक हो, पर दूसरों की गरिमा का सम्मान भी हो।
    और जहाँ परिवार, समाज और संस्कृति मिलकर नई पीढ़ी को “स्मार्ट” नहीं, “संवेदनशील” बनाएं।
    राजकुमार मणि त्रिपाठी
    (लेखक, सामाजिक चिंतक)
Editor CP pandey

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