पुनीत मिश्र
हिन्दी साहित्य के इतिहास में जैनेन्द्र कुमार का नाम उन रचनाकारों में लिया जाता है, जिन्होंने कथ्य से अधिक मनुष्य के अंतर्मन को साहित्य का केंद्र बनाया। वे केवल उपन्यासकार या निबंधकार नहीं थे, बल्कि मानव चेतना के सूक्ष्मतम स्तरों के अन्वेषक थे। उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें स्मरण करना दरअसल उस साहित्यिक परंपरा को याद करना है, जिसने शोर के बजाय मौन को, बाहरी घटनाओं के बजाय आंतरिक संघर्ष को महत्व दिया।
जैनेन्द्र कुमार का जन्म 2 जनवरी 1905 को अलीगढ़ में हुआ। प्रारंभिक जीवन में ही महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन से स्वयं को जोड़ा। यही कारण रहा कि उनके लेखन में नैतिकता, आत्मसंघर्ष और आत्मानुशासन के तत्व बार-बार उभरते हैं। उनका साहित्य किसी विचारधारा का प्रचार नहीं करता, बल्कि व्यक्ति को अपने भीतर झाँकने के लिए विवश करता है।
हिन्दी उपन्यास को मनोवैज्ञानिक धरातल पर प्रतिष्ठित करने में जैनेन्द्र कुमार की भूमिका ऐतिहासिक है। सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, सुखदा और विवर्त जैसे उपन्यासों में उन्होंने स्त्री-पुरुष संबंधों, दांपत्य जीवन, कामना, त्याग और नैतिक द्वंद्व को अत्यंत संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया। उनके पात्र सामाजिक ढाँचे से अधिक अपने मन के सवालों से जूझते दिखाई देते हैं। यही विशेषता उन्हें प्रेमचंद की सामाजिक यथार्थवादी परंपरा से अलग, लेकिन उतनी ही महत्वपूर्ण बनाती है।
जैनेन्द्र कुमार की भाषा सरल होते हुए भी गहरी है। वे बड़े-बड़े संवादों या अलंकारिक वाक्यों में विश्वास नहीं करते थे। उनकी शैली में ठहराव है, मौन है और वही मौन पाठक से संवाद करता है। कई बार उनकी रचनाएँ असहज करती हैं, क्योंकि वे हमारे भीतर छिपे प्रश्नों को सामने रख देती हैं।
निबंधकार के रूप में भी जैनेन्द्र कुमार का योगदान उल्लेखनीय है। उनके निबंध आत्मविश्लेषण, नैतिकता और जीवन-दर्शन से जुड़े हैं। वे किसी निष्कर्ष को थोपते नहीं, बल्कि प्रश्नों की एक शृंखला सामने रख देते हैं, जिनका उत्तर पाठक को स्वयं खोजना होता है। यही कारण है कि उनका साहित्य आज भी प्रासंगिक प्रतीत होता है।
साहित्यिक योगदान के लिए जैनेन्द्र कुमार को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया तथा भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से अलंकृत किया। किंतु इन सम्मानों से भी बड़ा उनका वह प्रभाव है, जो हिन्दी साहित्य के चिंतनशील पाठकों और लेखकों पर आज तक बना हुआ है।
24 दिसंबर 1988 को जैनेन्द्र कुमार का निधन हुआ, पर उनका साहित्य आज भी जीवित है। उनकी पुण्यतिथि हमें यह याद दिलाती है कि साहित्य केवल मनोरंजन या सामाजिक चित्रण नहीं, बल्कि आत्मा की यात्रा भी है। जैनेन्द्र कुमार उस यात्रा के ऐसे पथप्रदर्शक हैं, जिन्होंने हिन्दी साहित्य को मनुष्य के भीतर उतरने का साहस दिया।
उनका स्मरण करते हुए यही कहा जा सकता है कि जैनेन्द्र कुमार का लेखन हमें बाहर की दुनिया बदलने से पहले अपने भीतर की दुनिया समझने की प्रेरणा देता है और यही किसी भी महान साहित्यकार की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है।
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