दहेज, भेदभाव और बाल विवाह—सवाल आज भी वहीं खड़े हैं।

डाॅ. सतीश पाण्डेय

महराजगंज(राष्ट्र की परम्परा)। समाज बदल रहा है, तकनीक आगे बढ़ रही है, देश विकास की नई ऊंचाईयां छू रहा है—लेकिन दुखद हकीकत यह है कि दहेज, भेदभाव और बाल विवाह जैसे सवाल आज भी उसी जगह खड़े हैं, जहां दशकों पहले खड़े थे। कानून मजबूत हुए,जागरूकता अभियान चले, लेकिन जमीनी स्तर पर इन सामाजिक बुराइयों की जड़ें अभी भी बहुत गहरी हैं।
दहेज की मांग आज भी कई परिवारों को आर्थिक तंगी, कर्ज और अपमान की आग में झोंक देती है। बेटियों को बोझ समझने की सोच अब भी पूरी तरह खत्म नहीं हुई। विवाह के नाम पर होने वाला यह लेन-देन न सिर्फ कानून का उल्लंघन है बल्कि मानवता पर भी बड़ा प्रहार है।
इसी तरह भेदभाव—चाहे वह लड़का-लड़की के बीच हो, जाति के आधार पर हो या सामाजिक स्तर पर—समाज की सबसे पुरानी और सबसे हानिकारक समस्याओं में से एक है। यह भेदभाव न सिर्फ रिश्तों को कमजोर करता है बल्कि अवसरों के दरवाजे भी बंद कर देता है, जिससे प्रतिभा दबकर रह जाती है।
बाल विवाह जैसी कुरीति आज भी कई हिस्सों में मौजूद है। कम उम्र में विवाह बच्चों के भविष्य, स्वास्थ्य और शिक्षा पर गहरा असर डालता है। कानून सख्त हैं, परंतु सामाजिक दबाव, गरीबी और जागरूकता की कमी इस कुरीति को अब भी ज़िंदा रखे हुए हैं।
सवाल उठता है—इतने वर्षों बाद भी ये बुराइयां क्यों नहीं खत्म हो सकीं?
विशेषज्ञों का मानना है कि इन समस्याओं की जड़ें परंपरा के नाम पर बचाई जाने वाली रूढ़ियों, कमजोर सामाजिक जागरूकता और शिक्षा की कमी में छिपी हैं। समाधान वही है—जागरूकता, शिक्षा और सामाजिक साहस। लोगों को आगे बढ़कर कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठानी होगी। परिवार, समाज और प्रशासन जब एक साथ खड़े होंगे तभी इन बुराइयों की जंजीरें टूटेंगी। देश की प्रगति का असली पैमाना सड़कों और इमारतों से नहीं, बल्कि समाज की सोच से तय होगा। जब दहेज, भेदभाव और बाल विवाह जैसे प्रश्न समाप्त होंगे, तभी हम सही मायनों में विकसित समाज कहे जाएंगे।

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