बेटा ऑनलाइन था, पर माँ ऑफलाइन चली गई…
(तकनीक के जमाने में बुजुर्गों की अकेलापन-बचाने की पुकार)
सुबह आठ बजे की एक तस्वीर — रसोई में हल्का सा धुंधला उजाला, एक कटोरी बेसन की चलिए जमी हुई, और मेज पर रखा मोबाइल स्क्रीन पर बच्चों के व्हाट्सऐप नोटिफिकेशन की लंबी सूची। उस कमरे में एक कुर्सी खाली है — उस कुर्सी पर हर सुबह बैठने वाली माँ अब अलग दुनिया में चली गई। बेटे के पास अनगिनत मैसेज थे, पर उसे एहसास तब हुआ जब बहुत देर हो चुकी थी।
यह कहानी किसी एक परिवार की नहीं, यह हमारे शहरों, आवासीय कॉलोनियों और गाँवों में छिपी हुई उन हजारों माँ-बाप की कहानी है, जिन्हें तकनीक ने आंखों के सामने भी अकेला कर दिया — क्योंकि हमारा जुड़ाव स्क्रीन पर बढ़ा, पर साथ कम होता गया।
राधा देवी (65) (काल्पनिक नाम) का बेटा सुबह-शाम मोबाइल पर बिजी रहता था। वीडियो कॉल करता, फोटो भेजता, सब ठीक-ठाक लिख देता — पर असल समय में पूछना, बैठकर बातें करना, हाथ पकड़कर सुनना — इन सबसे दूरी बढ़ती गई। रिश्ते संवाद से बदलकर सूचना बन गए। एक दिन राधा देवी के पड़ोसियों ने देखा कि उनका दरवाज़ा देर तक खुला है; भीतर की चुप्पी ने सच बोल दिया।
तकनीक ने ज़िन्दगी आसान की है — पर संवेदनशीलता के लिए हमें जोड़ने का काम खुद करना होगा। घर में बुज़ुर्गों की मानसिक व शारीरिक ज़रूरतें स्क्रीन-नोटिफिकेशन से पूरी नहीं होती। अकेलापन दिल पर चोट करता है, और चोटें अक्सर दिखती नही।
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