“जाम में कैद शहर: विकास की रफ्तार या अव्यवस्था का जाल?”

शहर का नाम लेते ही भीड़-भाड़, हॉर्न का शोर और घंटों तक खिंचता जाम आंखों के सामने आ जाता है। अब केवल महानगर ही नहीं, बल्कि छोटे और मध्यम वर्ग के शहर भी इस संकट से जूझ रहे हैं। सड़कों का चौड़ीकरण और फ्लाईओवर निर्माण के बावजूद जाम का स्थायी समाधान नहीं निकल पा रहा। सवाल यही है—गलती किसकी है? प्रशासन की योजनाओं की कमी या नागरिकों की लापरवाही?

जाम से थमती सांसें और घटता जीवन स्तर

हर सुबह ऑफिस जाने वाला कर्मचारी, स्कूल जाने वाले बच्चे, अस्पताल की ओर भागते मरीज और आम आदमी—सभी इस जाम की भेंट चढ़ते हैं। एंबुलेंस और फायर ब्रिगेड जैसी आपातकालीन सेवाएं भी अक्सर इस अव्यवस्था में फंस जाती हैं। यह समस्या सिर्फ़ समय की बर्बादी नहीं है, बल्कि प्रदूषण, मानसिक तनाव और स्वास्थ्य संकट का खतरनाक रूप ले चुकी है।

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प्रशासनिक योजनाओं की कमजोर कड़ी

विकास के नाम पर सड़कों पर गाड़ियों की संख्या बढ़ती गई, मगर ट्रैफिक प्रबंधन की योजनाएं वहीं की वहीं रह गईं।ट्रैफिक सिग्नल का तालमेल बिगड़ा हुआ है। पार्किंग की ठोस व्यवस्था नहीं है।पब्लिक ट्रांसपोर्ट की कमी ने लोगों को निजी वाहनों पर निर्भर बना दिया है।
“स्मार्ट सिटी” और “मास्टर प्लान” जैसे नारे तो खूब गूंजते हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर यह सब खोखले साबित हो जाते हैं।जनमानस की भूमिका भी उतनी ही जिम्मेदारसिर्फ़ प्रशासन को दोषी ठहराना गलत होगा। नागरिक भी उतनी ही बड़ी भूमिका निभाते हैं। सड़क किनारे अवैध तरीके से गाड़ियां खड़ी करना ट्रैफिक नियम तोड़ना लेन अनुशासन की अनदेखी करना,ओवरटेक की होड़ लगाना
यही सब सड़कों को जाम के जाल में धकेल देते हैं।
सड़कों पर कब्ज़े ने बिगाड़ी हालत
आत्मनिर्भरता और रोज़गार के नाम पर दुकानों के आगे 2-3 फीट तक सड़क पर कब्ज़ा, और उसके आगे ठेले-खोमचे वालों द्वारा 5 फीट तक व्यवसायिक प्रतिष्ठान खड़े कर दिए गए हैं। ग्राहक वहां गाड़ी खड़ी करके खरीदारी करता है, जिससे सड़क एक लेन तक सिमट जाती है। ऊपर से आड़े-तिरछे खड़े रिक्शे, ई-रिक्शे और सवारी गाड़ियां मिलकर यातायात को अव्यवस्था के दलदल में धकेल देती हैं।
‘देर आए दुरुस्त आए’—लेकिन कब तक?
हर नया फ्लाईओवर और चौड़ी सड़क कुछ वर्षों बाद फिर जाम का हिस्सा बन जाती है। यानी हम “देर आए दुरुस्त आए” के बहाने अपने जीवन की रफ्तार को थाम रहे हैं।
क्या है समाधान?

पब्लिक ट्रांसपोर्ट को मजबूत बनाना – मेट्रो, इलेक्ट्रिक बसें और साझा सवारी को बढ़ावा देना।सख्त ट्रैफिक नियम – चालान और जुर्माना सिर्फ दिखावे का न होकर वास्तव में असरदार बने।स्मार्ट ट्रैफिक सिस्टम – सेंसर आधारित सिग्नल और AI मॉनिटरिंग का इस्तेमाल।साइकिल और पैदल पथ – पर्यावरण व स्वास्थ्य दोनों के लिए लाभकारी।सड़क कब्ज़े पर रोक – ठेले-खोमचे और दुकानों द्वारा सड़क घेरने पर सख्त कार्यवाही।जन-जागरूकता – सड़क को अपनी जिम्मेदारी मानते हुए अनुशासन में चलना।
शहर का जाम केवल प्रशासन की नाकामी या नागरिकों की लापरवाही नहीं, बल्कि एक सामूहिक समस्या है। जब तक सरकार ठोस नीतियां नहीं बनाएगी और नागरिक अपनी आदतें नहीं बदलेंगे, तब तक शहर की रफ्तार जाम में कैद रहेगी। यह जाम सिर्फ हमारी गाड़ियों को नहीं, बल्कि हमारे जीवन को भी रोक रहा है। अब समय आ गया है कि हम “जिम्मेदारी और अनुशासन” को समाधान की चाबी मानें—वरना आने वाली पीढ़ियां भी इसी अव्यवस्था की कैद में रहेंगी।

Editor CP pandey

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