● नवनीत मिश्र
भारतीय सभ्यता-संस्कृति की पहचान उसकी मौलिक ज्ञान-अन्वेषण परंपरा में निहित रही है और इस परंपरा की आधारशिला हैं ” शास्त्र “। शास्त्र केवल ग्रंथ नहीं, बल्कि प्रमाणित ज्ञान, अनुभवजन्य सत्य और जीवन-सिद्ध मार्गदर्शन का वह सुविस्तृत भंडार हैं, जिन्होंने सहस्राब्दियों से भारतीय समाज, दर्शन, विज्ञान, न्याय और संस्कृति को दिशा दी है।
शास्त्र शब्द ‘शास्’ धातु से बना है जिसका भावार्थ है, मार्गदर्शन, शिक्षा और अनुशासन। इस दृष्टि से शास्त्र वह जीवन-व्यवस्था है जो मनुष्य को धर्म, नीति, कर्म, समाज और प्रकृति के संतुलन का सटीक मार्ग बताती है। भारतीय परंपरा में शास्त्र तर्क, अनुभव और आध्यात्म की संयुक्त धारा पर टिका वह ज्ञान-तंत्र है, जिसने कभी अंधानुकरण नहीं, बल्कि मनन और विवेक को प्राथमिकता दी।
भारतीय ज्ञान-संरचना में शास्त्रों की विविधता अद्भुत है। वेद और वेदांग जहाँ मूल ज्ञान की ज्योति हैं, वहीं स्मृति और धर्मशास्त्र समाज-व्यवस्था और न्याय-प्रणाली के आधार प्रस्तुत करते हैं। सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत जैसे दर्शन तर्क और आध्यात्म की पराकाष्ठा हैं। चरक-सुश्रुत संहिता का आयुर्वेद, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, नाट्यशास्त्र, वास्तुशास्त्र और संगीत-शास्त्र जीवन के वैज्ञानिक, आर्थिक, कलात्मक एवं सांस्कृतिक पक्षों को विस्तार देते हैं।
विशेष तथ्य यह है कि भारतीय शास्त्र केवल धार्मिक या आराधनात्मक ग्रंथ नहीं, बल्कि कई क्षेत्रों में आधुनिक विज्ञान के मूल विचारों के पूर्ववर्ती सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं। पाणिनि का अष्टाध्यायी आधुनिक कंप्यूटर भाषाओं के व्याकरणिक ढाँचे के समान है, जबकि आयुर्वेद का समग्र दृष्टिकोण आज की होलिस्टिक मेडिसिन का आधार बन रहा है। सांख्य दर्शन की तत्त्व-सिद्धि आधुनिक विज्ञान की कई अवधारणाओं से अद्भुत समानता रखती है।
सामाजिक जीवन के संदर्भ में शास्त्र मनुष्य को न्याय, नीति, संतुलन और समरसता की ओर प्रेरित करते हैं। धर्म का अर्थ यहाँ किसी संकीर्ण आस्था से नहीं, बल्कि वह नियम है जो व्यक्ति और समाज दोनों का संरक्षण करे और सामूहिक उत्थान सुनिश्चित करे।
आज जब समाज मूल्य-संकट, मानसिक तनाव, पर्यावरणीय चुनौतियों और सामाजिक अव्यवस्था जैसी अनेक स्थितियों से गुजर रहा है, तब शास्त्रों की शिक्षाएँ और भी प्रासंगिक हो उठती हैं। वे जीवन में विवेकपूर्ण निर्णय, नैतिक आचरण और संतुलित दृष्टि का आग्रह करती हैं।
भारतीय शास्त्र हमारी सांस्कृतिक चेतना का जीवंत आधार हैं। वे केवल अतीत की स्मृति नहीं, बल्कि भविष्य का मार्ग भी निर्देशित करते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम शास्त्रों को केवल परंपरा के बोझ के रूप में न देखें, बल्कि उन्हें अनुसंधान, विमर्श और समकालीन संदर्भों में समझते हुए आगे बढ़ाएँ। यही समय की माँग है कि हम शास्त्रों की मूल भावना को समझते हुए उन्हें आधुनिक संदर्भों में पुनः प्रासंगिक बनाकर ज्ञान-समृद्ध भविष्य की ओर अग्रसर हों।
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