कैलाश सिंह
महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)।संस्कार किसी भी समाज की पहचान होते हैं — वह धरोहर जिसमें हमारा अतीत भी बसा होता है और भविष्य का रास्ता भी छिपा होता है। लेकिन आज जब जीवन की रफ्तार बदल रही है, परिवार के ढाँचे में परिवर्तन आ रहा है और आधुनिकता हर कदम पर अपनी जगह बना रही है, ऐसे समय में सबसे बड़ा प्रश्न खड़ा है— इन संस्कारों की विरासत को आखिर संभाले कौन?
आज का समाज दो स्पष्ट हिस्सों में बंटता जा रहा है—एक तरफ वह पीढ़ी है जिसने संस्कारों को जीवन का आधार माना, और दूसरी तरफ वह नई पीढ़ी है जिसे परंपराएं अक्सर बोझ और पुरातनता की तरह दिखने लगी हैं। यह विभाजन केवल विचारों का नहीं, बल्कि चरित्र, संबंधों और जिम्मेदारियों का भी है।
संयुक्त परिवार कभी संस्कारों की पाठशाला हुआ करते थे। दादी- नानी की कहानियां, बड़ों का आशीर्वाद, छोटी गलतियों पर सीख, और हर त्योहार का सामूहिक उत्साह… यही वह तंतु थे जिनसे संस्कृति बुनी जाती थी।
लेकिन बदलते समय में यह ढांचा सिकुड़ता चला गया।छोटे परिवारों में अब समय है, लेकिन संगति नहीं, साधन हैं, लेकिन संवाद नहीं। ऐसे में संस्कारों के हस्तांतरण की प्रक्रिया स्वतः कमजोर पड़ गई।
टेक्नोलॉजी ने दी सुविधा, लेकिन छीन लिया मानवीय स्पर्श,
मोबाइल,सोशल मीडिया और इंटरनेट ने ज्ञान के द्वार खोले, पर साथ ही मनुष्य से मनुष्य का संबंध भी कम कर दिया।बच्चे अब गुरु से नहीं, गूगल से सीखते हैं,अनुभव से नहीं, एल्गोरिदम से प्रभावित होते हैं।
यही कारण है कि मर्यादा, विनम्रता, बड़ा– छोटा, आदर–सम्मान जैसी मूलभूत शिक्षाएं डिजिटल चमक में धुंधली पड़ रही हैं।
विद्यालय शिक्षा में नैतिकता की कमी,
स्कूलों में विज्ञान,गणित, अंग्रेज़ी सब पढ़ाया जाता है,लेकिन नैतिकता, मूल्य शिक्षा और सांस्कृतिक बोध धीरे-धीरे पाठ्यक्रम से गायब हो गए। जब शिक्षा सिर्फ रोजगार का साधन बन जाए, तब चरित्र निर्माण पीछे छूट जाता है। और जब चरित्र कमज़ोर हो, तो समाज भी अनमना और दिशाहीन हो जाता है। बदलाव जरूरी है, पर जड़ काटकर आधुनिकता नहीं टिकती,आधुनिकता का स्वागत होना चाहिए, लेकिन उसके साथ संस्कारों की नींव भी सुरक्षित रहनी चाहिए।
जिस पेड़ की जड़ें मजबूत हों, वह आंधी में भी खड़ा रहता है समाज भी तभी स्थिर और सुरक्षित रहेगा जब उसकी जड़ें—यानी संस्कार, नैतिकता, सदाचार, सम्मान, सद्भाव—मजबूत बने रहें।तो आखिर विरासत को संभाले कौन परिवार को फिर से ‘पहली पाठशाला’ का दायित्व निभाना होगा माता- पिता को बच्चों को सुविधाएं ही नहीं, मूल्य भी देने होंगे।विद्यालय को किताबों के साथ जीवन—शिक्षा को फिर केंद्र में लाना होगा। समाज को आदर्शों, मर्यादाओं और आचरण के लिए स्वयं उदाहरण बनना होगा और नई पीढ़ी को समझना होगा कि तकनीक जीवन आसान करती है, पर संस्कार जीवन महान करते हैं।
अंत मे जब समाज अपने संस्कार खो देता है, तो उसकी प्रगति भी खोखली हो जाती है। आज जरूरत केवल सवाल पूछने की नहीं, बल्कि जवाब देने की है कि हम संस्कारों की इस विरासत को सिर्फ कहानी बनाकर छोड़ेंगे, या आने वाली पीढ़ियों के लिए जीवंत और उपयोगी बनाए रखेंगे?यही प्रश्न आज के समाज के सामने सबसे बड़ा सवाल बनकर खड़ा है।
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