भारतीय सिनेमा के इतिहास में 21 अक्टूबर की तारीख हमेशा एक भावनात्मक अध्याय के रूप में याद की जाती है। इस दिन दो दिग्गज कलाकार — यश चोपड़ा और अजीत — इस दुनिया से विदा हुए, जिन्होंने अपनी प्रतिभा, दृष्टि और अभिनय से भारतीय फ़िल्म उद्योग को नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया। दोनों का योगदान न केवल पर्दे पर, बल्कि भारतीय समाज की सांस्कृतिक चेतना में गहराई से अंकित है। आइए जानें इन दो महान हस्तियों के जीवन, कर्म और उनकी सिनेमा यात्रा की अमर गाथा।
यश चोपड़ा – रोमांस के राजा, संवेदना के चित्रकार (1932–2012)
27 सितंबर 1932 को लाहौर (तत्कालीन ब्रिटिश भारत, अब पाकिस्तान) में जन्मे यश राज चोपड़ा भारतीय सिनेमा के उन निर्माताओं में से थे जिन्होंने फिल्मों में प्रेम, संगीत और भावनाओं को एक नई भाषा दी। प्रारंभिक शिक्षा लाहौर में प्राप्त करने के बाद, देश के विभाजन के समय उनका परिवार जालंधर, पंजाब आ गया। यहीं से उन्होंने स्नातक की पढ़ाई पूरी की और फिर मुंबई का रुख किया — सपनों के उस शहर का, जिसने उन्हें यशराज बनने का अवसर दिया।
अपने बड़े भाई बी.आर. चोपड़ा के निर्देशन में सहायक के रूप में करियर शुरू करने वाले यश ने 1959 में “धूल का फूल” से बतौर निर्देशक पदार्पण किया। यह फ़िल्म समाज की असमानता और मानवता की करुणा का गहरा संदेश देने वाली थी। इसके बाद “वक़्त”, “इत्तेफ़ाक़”, “दीवार”, “कभी कभी”, “सिलसिला”, “चांदनी”, “दिल तो पागल है” और “वीर-ज़ारा” जैसी फिल्मों ने उन्हें भारतीय रोमांस का प्रतीक बना दिया।
उन्होंने यश राज फ़िल्म्स (YRF) की स्थापना कर भारतीय सिनेमा को एक मजबूत संस्थागत ढांचा दिया, जिसने न केवल व्यावसायिक दृष्टि से बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हिंदी फिल्मों की प्रतिष्ठा बढ़ाई।
21 अक्टूबर 2012 को मुंबई में उनका निधन हुआ। उस दिन भारतीय सिनेमा ने एक स्वप्नद्रष्टा को खो दिया, जिसने पर्दे पर भावनाओं की भाषा को कविता बना दिया। यश चोपड़ा का नाम आज भी हर रोमांटिक फ्रेम में जीवित है।
अजीत – विलेन का शालीन चेहरा, संवाद का अंदाज़ (1922–1998):
27 जनवरी 1922 को गोलकोंडा, हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) में जन्मे हमीद अली खान, जिन्हें दुनिया “अजीत” नाम से जानती है, भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे स्टाइलिश और प्रभावशाली खलनायकों में गिने जाते हैं। प्रारंभिक शिक्षा हैदराबाद में हुई, और अभिनय के प्रति रुचि ने उन्हें पढ़ाई छोड़कर मुंबई की फ़िल्मी दुनिया की ओर खींच लिया।
1946 में उन्होंने “करवान” से फ़िल्मी करियर की शुरुआत की, लेकिन शुरुआती दौर में वे मुख्य नायक के रूप में ज्यादा सफल नहीं हो सके। 1960 के दशक में जब उन्होंने अपने किरदारों को नकारात्मक छवि में ढाला, तभी उनका करियर चरम पर पहुंचा। “कल राज़”, “जंजीर”, “कालीचरण”, “हमेशा खलनायक” और “नंबरदार” जैसी फिल्मों में उनके संवाद और स्टाइल दर्शकों के दिल में बस गए।
उनका प्रसिद्ध संवाद “मोना डार्लिंग” आज भी हिंदी फिल्मों का प्रतीक बन चुका है — एक ऐसा संवाद जो किसी अभिनेता को अमर कर देता है। अजीत ने न केवल खलनायक की परिभाषा बदली, बल्कि यह भी दिखाया कि विलेन का किरदार भी गरिमा और स्टाइल के साथ निभाया जा सकता है।
21 अक्टूबर 1998 को मुंबई में उनका निधन हुआ। उनके साथ एक युग समाप्त हुआ — वह दौर, जब विलेन भी दर्शकों का हीरो बन सकता था।
21 अक्टूबर — सिनेमा के दो युगों की स्मृति में एक भावनात्मक तिथि
यह दिन भारतीय सिनेमा की उस संवेदना को याद दिलाता है, जहाँ एक ओर यश चोपड़ा ने प्रेम को शुद्धता से सजाया, वहीं अजीत ने खलनायकी को एक अलग गरिमा दी। एक ने सपनों को रंगीन बनाया, तो दूसरे ने चरित्रों को गहराई दी। दोनों ही कलाकारों ने फ़िल्मों की भाषा, भाव और प्रस्तुति में ऐसा योगदान दिया, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा है।
आज भी जब सिनेमा प्रेमी किसी रोमांटिक दृश्य या दमदार विलेन को याद करते हैं, तो यश और अजीत का नाम स्वाभाविक रूप से जुबां पर आ जाता है। उनकी स्मृति हर वर्ष 21 अक्टूबर को भारतीय फ़िल्म उद्योग के लिए एक प्रेरणा दिवस बनकर लौट आती है।
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