“कचरा हम फेंकते हैं, शहर क्यों भुगते? — शहरी जिम्मेदारी का सच”

राष्ट्र की परम्परा डेस्क – सोमनाथ मिश्र

शहर सिर्फ ईंट, सीमेंट और सड़कों से नहीं बनते; शहर बनते हैं लोगों की आदतों, जिम्मेदारियों और साझा व्यवहार से। लेकिन दुखद यह है कि शहर हमारी जरूरतों से बसते हैं और हमारी लापरवाहियों से टूटते भी वही हैं। रोज़ सड़क किनारे बिखरी पोलिथीन, नालों में फेंकी गई गंदगी, खाली प्लॉटों में जमा कूड़े के ढेर—ये किसी बाहरी खतरे की देन नहीं; यह हमारी ही बनाई हुई समस्या है। सवाल कचरे का नहीं, कर्तव्यबोध का है। यही वजह है कि आज शहरी स्वच्छता, भारत की सबसे बड़ी चुनौती बन चुकी है।
हर सुबह जब हम घर का कचरा उठाकर गली के किसी कोने में डाल आते हैं, हमें लगता है कि हमारा काम खत्म। लेकिन सच तो यह है कि समस्या की असली शुरुआत वहीं से होती है। वह छोटा-सा कचरा का थैला शहर में बदबू का पहाड़, बीमारी का दौर, धुएँ से भरी कचरा-ढेर की आग, जाम हुए नाले और बारिश में डूबती सड़कों का कारण बनता है। शहर का प्रशासन कितना भी मजबूत क्यों न हो, जब तक नागरिक अपनी भूमिका नहीं समझेंगे, स्वच्छता सिर्फ पोस्टरों और स्लोगनों में ही चमकती रहेगी।
शहर की सफाई एक व्यवस्था नहीं, एक व्यवहार है। और यही व्यवहार आज सबसे अधिक बिगड़ा हुआ है।
कचरे की असली यात्रा: घर से सड़क तक, सड़क से संकट तक
आपके घर से निकला 1 किलो कचरा शहर में 10 किलो की समस्या बनकर लौटता है।
लगभग 70% घरेलू कचरा रीसायकल योग्य होता है,लेकिन बिना अलगाव के वह सिर्फ एक बेकार ढेर बन जाता है

हर गली में “किसी और का कचरा” वाली सोच
गंदगी की असल जड़ है।

सड़कों पर फेंका गया कचरा नालों को जाम करता है, नाले जाम होते हैं तो बारिश में शहर डूबता है—
और फिर दोष दिया जाता है सिस्टम को, जबकि गलती हमारी अपनी होती है।
यानी कचरा हम फेंकते हैं, लेकिन उसकी कीमत शहर चुकाता है—भीड़, बीमारी, प्रदूषण और अव्यवस्था के रूप में।
नागरिक जिम्मेदारी बनाम प्रशासनिक व्यवस्था
शहर की स्वच्छता किसी एक विभाग का दायित्व नहीं। यह एक त्रिकोणीय जिम्मेदारी है—

  1. नागरिक — कचरे का सही निपटान
  2. प्रशासन — नियमित सफाई और बेहतर प्रबंधन
  3. समाज — जागरूकता और सहभागिता
    लेकिन जब इन तीन में से दो भी हिस्से अपनी भूमिका भूल जाते हैं, परिणाम वही दिखाई देता है।
    गंदगी से घिरा शहर, शिकायतों से भरा जनमानस और हर तरफ फैली बेबसी।

    स्वच्छता कोई “सरकारी अभियान” नहीं; यह नागरिक सभ्यता है।
    लोगों की सोच बदलने वाली अपील — “कचरा मत फेंको, आदत फेंको”
    स्वच्छता को आदेश में नहीं, आदत में बदलना होगा।
    घर में गीला-सूखा कचरा अलग करें।
    सड़क पर गंदगी न फेंकें।
    सार्वजनिक स्थानों को घर जैसा सम्मान दें
    सफाई कर्मियों की मेहनत को समझें
    मोहल्ला स्तर पर छोटे-छोटे लक्ष्य तय करें
    जब नागरिक अपनी छोटी आदतें बदलते हैं, तब महानगर खुद-ब-खुद बड़े बदलाव महसूस करते हैं।
    भावनात्मक पुकार — शहर हमारा है, शर्म भी हमारी होनी चाहिए
    शहर की गंदगी कोई प्राकृतिक त्रासदी नहीं—यह हमारी बनाई मुसीबत है।
    एक पॉलीथिन उठाने से न आपको नुकसान होता है, न शहर पर बोझ बढ़ता है;
    लेकिन वही पॉलीथिन नाले में जाकर पूरे क्षेत्र को बीमार बना सकती है।
    शहर को साफ रखना किसी एक व्यक्ति का काम नहीं, यह सबकी साझी जिम्मेदारी है। अगर हम अपनी आदतें सुधार लें, तो—
    नालियाँ खुद डूबना बंद कर देंगी
    सड़कें साँस लेना शुरू कर देंगी
    नाले गंदगी नहीं, पानी बहाएंगे
    और शहर सच में “स्मार्ट सिटी” दिखने लगेगा
    हम बदलें, तो शहर भी बदलेगा।
    “शहर हमारा है, जिम्मेदारी भी हमारी”
    आज जरूरत सिर्फ सफाई अभियान की नहीं, बल्कि जागरूकता अभियान की है।
    क्योंकि किसी भी शहर को साफ रखने के लिए सबसे जरूरी मशीनरी न तो झाड़ू है, न ट्रैक्टर—
    सबसे जरूरी है नागरिक की सोच।
    यह लेख एक दर्पण है, जिसमें हम खुद को देखकर यह सवाल पूछ सकें—
    “कचरा मैं फेंक रहा हूँ… तो शहर क्यों भुगते?”
rkpnews@somnath

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