सवालों के घेरे में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद

विश्व राजनीति की अशांत मिट्टी पर खड़े संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का नैतिक व संस्थागत आधार आज पहले से कहीं अधिक प्रश्नों से घिरा है। जब युद्ध बढ़ते जा रहे हैं, तब शांति का सबसे बड़ा संरक्षक स्वयं अपनी भूमिका सिद्ध करने में असफल दिख रहा है।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) की 1945-आधारित संरचना आज की बहुध्रुवीय और संघर्षग्रस्त दुनिया में शांति बनाए रखने में सक्षम नहीं रह गई है। वीटो शक्ति का राजनीतिक दुरुपयोग, अप्रतिनिधिक सदस्यता, कमजोर राजनीतिक निरंतरता, असंगठित शांति अभियानों और बड़े मानवीय संकटों पर निष्क्रियता ने UNSC को कठघरे में खड़ा कर दिया है। वैश्विक दक्षिण की बढ़ती असंतुष्टि और विश्व व्यवस्था में उभरते शक्ति-संतुलन इस संस्था की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठाते हैं। संयुक्त राष्ट्र को अपनी वैधता और प्रभावशीलता बचाने के लिए गहरे, व्यावहारिक और कार्यात्मक सुधार अपनाने होंगे—अन्यथा शांति का यह सबसे बड़ा संरक्षक स्वयं प्रश्नों का केंद्र बन जाएगा।

— डॉ. सत्यवान सौरभ

सवालों के घेरे में खड़ा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद केवल एक संस्था का संकट नहीं है, बल्कि यह वैश्विक नैतिक नेतृत्व के क्षरण की बड़ी कहानी भी है। जब संयुक्त राष्ट्र का जन्म हुआ था, तब दुनिया दूसरी विश्वयुद्ध की राख से निकल रही थी और मानवता ने सामूहिक रूप से यह प्रण लिया था कि भविष्य में किसी भी बड़े युद्ध को रोका जाएगा। उस सपने का केंद्र था—सुरक्षा परिषद, जिसे शांति का संरक्षक, वैश्विक न्याय का प्रहरी और सामूहिक सुरक्षा का आधार माना गया। मगर आज, लगभग 80 वर्ष बाद, जब दुनिया यूक्रेन, गाज़ा, सूडान, यमन, म्यांमार और साहेल जैसे संघर्षों से दहक रही है, तब यह संस्था अक्सर मौन खड़ी दिखाई देती है।

यह मौन केवल असहायता का प्रतीक नहीं है, बल्कि उस संरचनात्मक कमजोरी का भी संकेत है जिसने वर्षों में इसकी विश्वसनीयता को खोखला कर दिया। जब दुनिया भर के नागरिक शांति की उम्मीद में इस संस्था की ओर देखते हैं, तब यह भू-राजनीतिक हितों की जकड़ में बंधी दिखाई देती है। यही कारण है कि आज शांति का सबसे बड़ा संरक्षक स्वयं सबसे बड़े सवालों का विषय बन गया है।

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सबसे बड़ी समस्या है—वीटो शक्ति से पैदा होने वाला शक्ति-असंतुलन। पाँच स्थायी सदस्य देशों के हाथों में केंद्रित यह शक्ति उन्हें किसी भी प्रस्ताव को रोकने का अधिकार देती है, भले वह प्रस्ताव मानवीय त्रासदी को रोकने जितना आवश्यक ही क्यों न हो। यही कारण है कि गाज़ा में हज़ारों बच्चों की मौतें हों, यूक्रेन में शहरों के शहर तबाह हो जाएँ, या म्यांमार में लोकतांत्रिक संस्थाओं का विनाश हो—सुरक्षा परिषद अक्सर पक्षाघात की स्थिति में दिखाई देती है। यह एक ऐसे दरवाज़े का दृश्य बन गया है जिसके बाहर सहायता की गुहार लगाने वाले लाखों लोग खड़े होते हैं, लेकिन उस दरवाज़े को खोलने की चाबी कुछ सीमित देशों के हाथों में होती है, जो अपने राष्ट्रीय हितों को वैश्विक शांति से ऊपर रख देते हैं।

सवाल यहाँ से आगे बढ़ता है—क्या शांति किसी राष्ट्र के हितों से छोटी हो सकती है? क्या हत्या और भूख से जूझते लोग किसी स्थायी सदस्य की भू-नीति के कारण मृत्यु के लिए छोड़ दिए जाएँ? क्या संयुक्त राष्ट्र जैसे वैश्विक संगठन का उद्देश्य केवल औपचारिक बयान देना रह गया है? ये प्रश्न आज तीखे होते जा रहे हैं, क्योंकि दुनिया भर में मीडिया, नागरिक समाज और शांति विशेषज्ञ लगातार यह महसूस कर रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र की नैतिक शक्ति का क्षरण हो चुका है।

दूसरी समस्या है—इस संस्था की संरचना का अप्रतिनिधिक होना। दुनिया 1945 से अब पूरी तरह बदल चुकी है, लेकिन UNSC की संरचना लगभग जड़वत है। अफ्रीका, जो संघर्षों का केंद्र भी है और शांति के लिए सर्वाधिक योगदान भी देता है, उसका कोई स्थायी प्रतिनिधि नहीं है। भारत जैसा विशाल लोकतंत्र, जिसके योगदान शांति रखरखाव से लेकर मानवीय सहायता तक व्यापक हैं, उसे भी अब तक स्थायी सदस्यता नहीं मिली है। यह एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था का संकेत है जो वास्तविकता से कट चुकी है।

जहाँ वैश्विक शक्ति-मानचित्र बदल गया है—चीन का उदय हुआ, भारत आर्थिक व राजनीतिक रूप से नई ऊँचाइयों पर पहुँचा, अफ्रीका उभरती संभावनाओं का महाद्वीप बन गया, लातिन अमेरिका राजनीतिक रूप से अधिक मुखर हुआ—वहाँ सुरक्षा परिषद अब भी 1945 की मानसिकता में फंसी है। परिणामस्वरूप, कई देश इसे “वैध” के बजाय केवल “पुरानी व्यवस्था” का अवशेष समझने लगे हैं।

तीसरी समस्या है—शांति अभियानों की राजनीतिक विफलता। संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना अभियानों ने कई जगह हिंसा को रोका जरूर, परंतु राजनीतिक स्थिरता नहीं ला सके। यह ऐसा था मानो किसी टूटते हुए घर की दीवार पर रंग तो कर दिया जाए, लेकिन दरारों की मरम्मत न की जाए। शांति केवल बंदूकें शांत कर देने से नहीं आती; यह आती है संवाद, समावेशन, शासन-सुधार और समाज के भीतर विश्वास पैदा करने से। लेकिन संयुक्त राष्ट्र का तंत्र शांति स्थापना और राजनीतिक समाधान को एकीकृत नहीं कर पाता।

उदाहरण के लिए, कई अफ्रीकी देशों में शांति सेना लगाने के बाद राजनीतिक मार्गदर्शन का अभाव रहा, जिसके कारण थोड़े समय बाद हिंसा फिर भड़क उठी। यह विफलता केवल संसाधन या क्षमता की नहीं, बल्कि दृष्टि-हीन रणनीति की भी है।

चौथी समस्या है—निरंतरता का अभाव। UNSC अक्सर केवल संकट की शुरुआत में सक्रिय होता है, लेकिन जब स्थिति स्थिर होने लगती है, तब उसकी उपस्थिति कम हो जाती है। इससे संघर्षग्रस्त देश राजनीतिक संक्रमण के बीच झूलते रह जाते हैं। यह “अधूरी शांति” का निर्माण करता है, जिसका अंत प्रायः नई हिंसा में होता है।

पाँचवीं समस्या है—इन विफलताओं के कारण संयुक्त राष्ट्र के प्रति भरोसे का क्षरण। आज वैश्विक दक्षिण में यह धारणा तेजी से बढ़ रही है कि सुरक्षा परिषद कुछ देशों की राजनीतिक लड़ाई का मैदान बन गया है। यही कारण है कि अफ्रीकी संघ, आसियान, अरब लीग और यूरोपीय संघ जैसे क्षेत्रीय संगठन अपने-अपने सुरक्षा ढाँचे मजबूत कर रहे हैं, और यह प्रवृत्ति संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को सीमित करती जा रही है।

इन सबके बीच प्रश्न उठता है—क्या समाधान है? क्या UNSC को बदलने की जरूरत है? या उसे पुनर्जीवित करने की?
उत्तर है—दोनों।

सुरक्षा परिषद में संरचनात्मक बदलाव आवश्यक हैं—नए स्थायी सदस्य, वीटो शक्ति की समीक्षा, क्षेत्रीय संतुलन—परंतु उससे भी अधिक आवश्यक है कार्यप्रणाली में सुधार। संयुक्त राष्ट्र महासभा अनुच्छेद 22 के तहत नए संस्थान बनाकर सुरक्षा परिषद की कमजोरियों की भरपाई कर सकती है। एक शांति एवं सतत सुरक्षा बोर्ड जैसी संस्था यह सुनिश्चित कर सकती है कि राजनीतिक निरंतरता बनी रहे, संघर्ष-बाद सुधारों की निगरानी हो, और शांति केवल युद्धविराम पर आधारित न होकर दीर्घकालिक राजनीतिक स्थिरता में बदले।

इसके साथ क्षेत्रीय संगठनों की भूमिका भी बढ़ानी होगी, क्योंकि वे स्थानीय संस्कृति, राजनीति और जमीनी वास्तविकताओं को बेहतर समझते हैं। शांति स्थापना अभियानों को राजनीतिक रणनीति के साथ जोड़ना होगा ताकि केवल बंदूकें ही नहीं, बल्कि मन भी शांत हो सकें।

सबसे महत्वपूर्ण है—संयुक्त राष्ट्र को स्वयं अपनी नैतिक विश्वसनीयता को पुनः स्थापित करना होगा। वह तभी संभव है जब वह मानवीय संकटों में समयबद्ध, निष्पक्ष और साहसिक निर्णय लेने में सक्षम हो। केवल बयान देने की संस्कृति से आगे बढ़कर, उसे वास्तविक प्रवर्तन-आधारित शांति तंत्र बनना होगा।

आज दुनिया भय, ध्रुवीकरण, तकनीकी संघर्ष, आतंकवाद, जल-संकट, और युद्ध की आशंकाओं से जूझ रही है। ऐसे समय में संयुक्त राष्ट्र की निष्क्रियता मानवता को निराश कर रही है। शांति के इस सबसे बड़े संरक्षक पर उठते सवाल तभी शांत होंगे जब यह संस्था स्वयं को 21वीं सदी के अनुरूप पुनर्निर्मित करेगी।

समय आ गया है कि दुनिया संयुक्त राष्ट्र से वह भूमिका वापस मांगे जिसे निभाने का वादा उसने 80 वर्ष पहले किया था—
शांति, न्याय और मानवता की रक्षा।

डॉ सत्यवान सौरभ -स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तम्भस्कार -हिसार

Editor CP pandey

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