भागलपुर/देवरिया
हमारा समाज किस ओर जा रहा है—यह सवाल हर उस घटना के बाद और गहरा होता जा रहा है, जो कहीं न कहीं हमारी संवेदनहीनता और प्रशासनिक सुस्ती की पोल खोल देती है। हम विकास के दावे ज़रूर करते हैं, मोबाइल पर सैकड़ों मित्रों की सूची चमकती है, लेकिन पड़ोस में रहने वाले के दुख–सुख से हम अनजान हो चुके हैं। यही गिरती सामाजिक चेतना आज भयावह स्थिति का रूप ले रही है।
भागलपुर के शांत माने जाने वाले गांव में मंगरू राइनी उर्फ फखरुद्दीन की संदिग्ध मौत इसी टूटते सामाजिक ढांचे और लचर प्रशासनिक तंत्र का ताजा उदाहरण है। ठेला चलाकर परिवार पालने वाला एक साधारण युवक—जो अपनी मिलनसारिता और सरल स्वभाव के लिए जाना जाता था—अचानक कुएं में मृत पाया जाता है, और व्यवस्था खामोश पड़ी रहती है। इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा?
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ग्रामीणों और परिजनों ने कई दिन पहले ही पुलिस-प्रशासन को तहरीर दी थी, संभावित खतरे की जानकारी भी दी थी, लेकिन न तो पुलिस की तरफ़ से कोई सतर्कता दिखाई गई और न ही जांच की दिशा में कोई ठोस कदम उठाया गया। यह निष्क्रियता केवल लापरवाही नहीं—यह एक गरीब की जिंदगी की कीमत को कम आँकने की मानसिकता है। थाने और चौकी का हाल यह है कि गरीब की तहरीर कार्रवाई नहीं, बल्कि परेशानी लेकर आती है, जबकि दलाल बेखौफ घूमते हैं।
जनमानस में यह चर्चा तेज है कि ‘जर, जोरू, जमीन’ जैसे पारंपरिक कारणों से आज भी कई जिंदगियाँ खत्म होती हैं। मंगरू की भी किसी से अनबन की जानकारी पहले से थी, फिर भी पुलिस की नींद नहीं खुली। अब भय है कि गरीब होने के कारण इस मामले को भी “अज्ञात” या “आत्महत्या” जैसे लेबल दे कर फाइल दबा दी जाएगी। यही हमारे सिस्टम की वो सच्चाई है जिसे हर कोई जानता है, पर कोई कहता नहीं।
सबसे बड़ी चिंता उन मासूम बच्चों की है, जो असमय पिता का साया खो चुके हैं। उनका भविष्य कौन देखेगा? कौन यह सोच रहा है कि 27–28 वर्ष के एक कमाऊ बेटे की मृत्यु सिर्फ़ एक परिवार का नहीं, बल्कि समाज का नुकसान है? लेकिन समाज से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग तक सब मौन हैं। बाहुबल चरम पर है और अपराध की उछाल यह संदेश दे रही है कि आज गरीब की बारी है, कल किसी और की हो सकती है।
मौत आज दाने-दाने के भाव बिक रही है और व्यवस्था दलालों और भ्रष्टाचार के आगे घुटने टेक चुकी है। इस स्थिति में जरूरी है कि हम स्वयं से यह प्रश्न करें—क्या हम इसी समाज का निर्माण करना चाहते थे? जहाँ इंसानियत दम तोड़ दे और न्याय गरीब की पहुँच से बाहर हो?
प्रशासन के लिए यह मामला सिर्फ़ एक जांच नहीं, बल्कि भरोसा बहाल करने की परीक्षा है। पारदर्शी, निष्पक्ष और ठोस जांच ही यह साबित करेगी कि न्याय व्यवस्था अभी भी जीवित है। साथ ही समाज के जागरूक वर्ग को भी आगे आने की जरूरत है, क्योंकि यदि आज चुप्पी साध ली गई, तो कल यह चुप्पी किसी और मासूम की जिंदगी ले सकती है।
हमारा कर्तव्य है कि हम इंसानियत को जीवित रखें और हर उस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाएं—जो किसी की गरीबी का फायदा उठाकर उसकी जिंदगी छीन लेता है।
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