जयंती पर विशेष ✍️ प्रो. सुषमा पाण्डेय
पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारतीय राजनीति, समाज और संस्कृति के उन महान विभूतियों में रहे हैं जिन्होंने स्वतंत्र भारत की दिशा तय करने में गहरी भूमिका निभाई। वे केवल एक राजनेता नहीं, बल्कि विचारक, दार्शनिक और युगद्रष्टा थे। उनका सपना एक ऐसे भारत का था जो आधुनिक हो, पर अपनी परंपरा से जुड़ा रहे; जो आर्थिक रूप से समृद्ध हो, पर मानवीय संवेदनाओं से विहीन न हो। उन्होंने अपने चिंतन और कर्म से यह स्पष्ट किया कि भारत की प्रगति केवल भौतिक साधनों से नहीं, बल्कि आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों की आधारशिला पर ही संभव है।
उनका सर्वाधिक उल्लेखनीय योगदान “एकात्म मानववाद” का दर्शन है। यह दर्शन भारतीय चिंतन परंपरा का आधुनिक रूप है, जिसमें मनुष्य को केवल शरीर और भोग तक सीमित न मानकर आत्मा और संवेदना से युक्त संपूर्ण अस्तित्व के रूप में देखा गया है। उपाध्याय मानते थे कि विकास का मापदंड केवल उत्पादन या धन नहीं होना चाहिए, बल्कि शिक्षा, संस्कृति, नैतिकता और सामाजिक समरसता भी उतनी ही अनिवार्य हैं। जब हम आज की आर्थिक नीतियों और तकनीकी क्रांति को देखते हैं, तब यह अनुभव होता है कि उनका यह दर्शन आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था।
पंडित उपाध्याय की दूसरी महत्त्वपूर्ण अवधारणा “अंत्योदय” थी। उनके लिए विकास का असली पैमाना समाज के अंतिम व्यक्ति तक उसका लाभ पहुँचाना था। उनका विश्वास था कि जब तक सबसे गरीब और वंचित व्यक्ति की स्थिति नहीं सुधरेगी, तब तक किसी भी प्रकार की प्रगति अधूरी है। यही कारण है कि आज देश की अनेक कल्याणकारी योजनाएँ जैसे जनधन योजना, उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत और आवास योजना उनके अंत्योदय दर्शन की प्रतिध्वनि के रूप में दिखाई देती हैं।
राजनीति को उन्होंने सत्ता प्राप्ति का माध्यम कभी नहीं माना। उनके लिए राजनीति राष्ट्र निर्माण और समाज सेवा का साधन थी। भारतीय जनसंघ को उन्होंने न केवल संगठनात्मक आधार दिया, बल्कि उसमें सामाजिक समरसता, स्वदेशी अर्थनीति और भारतीयता जैसे मूल्यों को केंद्र में स्थापित किया। आज जब राजनीति में अवसरवाद और स्वार्थ की प्रवृत्तियाँ बढ़ती दिखती हैं, तब पंडित उपाध्याय का आदर्श एक प्रकाश स्तंभ की भाँति मार्गदर्शन करता है।
उनका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। उनके लिए राष्ट्र केवल भौगोलिक सीमा नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक इकाई था। भारत की आत्मा उसकी परंपराओं, सभ्यता और नैतिक मूल्यों में निहित है। “वसुधैव कुटुम्बकम्” उनके लिए केवल एक श्लोक नहीं, बल्कि जीवन जीने की दृष्टि थी। वे पश्चिमी मॉडल की अंधी नकल के बजाय भारतीय समाज की मौलिक संरचना के आधार पर विकास की राह पर विश्वास करते थे। यही कारण है कि आज भी उनका चिंतन भारतीयता के संरक्षण और संवर्धन में प्रेरणादायी है।
समकालीन भारत में जब हम विकसित भारत 2047 की परिकल्पना करते हैं, तब पंडित दीनदयाल उपाध्याय की शिक्षाएँ और भी प्रासंगिक हो जाती हैं। भारत को केवल आर्थिक दृष्टि से समृद्ध राष्ट्र बनाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि ऐसा राष्ट्र बनाना आवश्यक है जिसमें सामाजिक न्याय, मानवीय गरिमा और सांस्कृतिक चेतना का संतुलन हो। यह वही दृष्टि है जिसकी ओर पंडित उपाध्याय ने मार्गदर्शन किया था।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जीवन और चिंतन हमें यह सिखाता है कि सच्चा विकास वही है जिसमें समाज का अंतिम व्यक्ति भी सशक्त और सम्मानित हो। उनका सपना एक ऐसा भारत था जो आधुनिकता को अपनाए, पर अपनी जड़ों से जुड़ा रहे; जो समृद्ध हो, पर सहृदय और समावेशी भी हो। आज आवश्यकता है कि उनके विचारों को केवल स्मरण न किया जाए, बल्कि उन्हें राष्ट्रीय विकास की योजनाओं का अभिन्न अंग बनाया जाए। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। निस्संदेह, पंडित दीनदयाल उपाध्याय आधुनिक भारत के महान स्वप्न दृष्टा थे।
(लेखिका: दीनदयाल उपाध्याय शोध पीठ की निदेशक एवं वरिष्ठ आचार्य, शिक्षा शास्त्र विभाग, डीडीयू गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर हैं।)
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