मानवीय संपर्क एवं संवाद में कमी से मानसिक दबाव बढ़ता जा रहा है: प्रो. पूनम टण्डन
संगीत एक उपचारक है जहाँ संगीत तरंगों के समान है और भावनाएँ तटरेखा हैं: प्रो. बृज भूषण, उपनिदेशक, आईआईटी कानपुर
भारतीय मनोविज्ञान विश्व को संतुलित और समग्र दृष्टि प्रदान कर सकता है : प्रो. गिरीश्वर मिश्रा, पूर्व कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
गोरखपुर (राष्ट्र की परम्परा)। दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग द्वारा “मानसिक स्वास्थ्य और भारतीय ज्ञान प्रणाली : योग एवं अन्य परंपराओं का योगदान” विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं 13वीं प्रो. एल. बी. त्रिपाठी स्मृति व्याख्यानमाला का शुभारंभ आज विश्वविद्यालय परिसर में हुआ।
इस अवसर पर विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. (डॉ.) पूनम टंडन ने संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा में मानसिक स्वास्थ्य और जीवनदर्शन के गहरे आयाम निहित हैं। उन्होंने अपने संबोधन में यह भी उल्लेख किया कि आज के युग में रोबोटिक्स संवेदनशीलता का स्थान ले रहा है और मानवीय संपर्क एवं संवाद में कमी से मानसिक दबाव बढ़ता जा रहा है। ऐसे समय में योग और भारतीय मनोवैज्ञानिक परंपराएँ संतुलन एवं मानसिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं।
संगोष्ठी के संयोजक एवं विभागाध्यक्ष प्रो. धनंजय कुमार ने स्वागत संबोधन प्रस्तुत करते हुए कहा कि आज पश्चिमी जगत में जो अवधारणाएँ लोकप्रिय हैं—जैसे सचेतनता (माइंडफुलनेस) और चेतना (कॉन्शसनेस)—उनकी जड़ें भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा में निहित हैं। पश्चिमी विद्वानों ने इन पर गहन शोध कर इन्हें नए नामों से प्रचारित किया, जबकि भारत ने स्वयं अपनी इन धरोहरों की उपेक्षा की। उन्होंने रेखांकित किया कि भारतीय दर्शन ने सदैव इन अवधारणाओं को मानव कल्याण से जोड़ा है और यह समय है कि मनोविज्ञान के भविष्य के लिए इन्हीं स्वदेशी आधारों पर पुनः ध्यान केंद्रित किया जाए। उन्होंने इस अवसर पर भारतीय ज्ञान प्रणाली की अमूल्य धरोहरों के संरक्षण हेतु एक नवीन अभियान की घोषणा भी की।
विशिष्ट अतिथि प्रो. गिरीश्वर मिश्रा (पूर्व कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा) ने भारतीय परिप्रेक्ष्य में मानसिक स्वास्थ्य की महत्ता को रेखांकित करते हुए कहा कि भारतीय मनोविज्ञान विश्व को संतुलित और समग्र दृष्टि प्रदान कर सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि समग्र स्वास्थ्य (होलिस्टिक हेल्थ) शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का सम्मिलित रूप है और इसके लिए आत्मा का स्वस्थ होना अनिवार्य है।
मुख्य अतिथि एवं स्मृति व्याख्यान वक्ता प्रो. बृज भूषण (उपनिदेशक, आईआईटी कानपुर) ने “मानसिक स्वास्थ्य और संगीत” विषय पर व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि मानसिक स्वास्थ्य हमारे मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और संज्ञानात्मक (सोचने की) प्रक्रियाओं का समग्र रूप है। उन्होंने स्पष्ट किया कि ध्वनि क्यों महत्त्वपूर्ण है—चाहे वह गीत हों, राग हों या मंत्रोच्चारण—ये सभी मस्तिष्क और स्नायु तंत्र पर गहरा प्रभाव डालते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि संगीत और मंत्रोच्चारणl जैसे ॐ का उच्चारण, कीर्तन या तिब्बती सिंगिंग बाउल, हमारे तंत्रिका तंत्र को शांत एवं संयमित कर सकते हैं।
विशेष अतिथि प्रो. आनंद प्रकाश (विभागाध्यक्ष, मनोविज्ञान, दिल्ली विश्वविद्यालय) ने अपने उद्बोधन में कहा कि भारतीय विचार और भारतीय परिप्रेक्ष्य में सार्वभौमिक बनने की अपार संभावनाएँ हैं। मानसिक स्वास्थ्य आज की बड़ी चुनौती है और समय के साथ इस चुनौती का समाधान भी निकलेगा। उन्होंने कृत्रिम बुद्धिमत्ता (ए.आई.) में भावनात्मक बुद्धिमत्ता (ई.आई.) के महत्व पर जोर देते हुए कहा कि ए.आई. मानव मस्तिष्क की उपज है, बल्कि यह मानव मस्तिष्क का एक कमजोर संस्करण है। उन्होंने विशेष रूप से रेखांकित किया कि दो क्षमताएँ ऐसी हैं जिन्हें ए.आई. कभी भी मानव से आगे नहीं बढ़ा पाएगा भावनात्मक नियंत्रण (इमोशनल रेग्युलेशन) और सचेत दक्षता (कांशस कम्पिटेन्स)।
प्रथम मुख्य वक्ता प्रो. योगेश आर्य, विभागाध्यक्ष, मनोविज्ञान विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने अपराह्न सत्र में सचेतनता और उसका भारतीय मनोविज्ञान में अंतर्निहित स्वरूप विषय पर व्याख्यान दिया। उन्होंने बताया कि सचेतनता कोई पश्चिमी अवधारणा नहीं है, बल्कि यह भारतीय योग, ध्यान और बौद्ध दर्शन में गहराई से निहित है।
द्वितीय मुख्य वक्ता प्रो. संदीप कुमार, विभाग मनोविज्ञान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने “भारतीय संगठनों में मानसिक स्वास्थ्य प्रबंधन : समग्र कल्याण हेतु प्राचीन ज्ञान का समावेश” विषय पर व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने भारतीय ज्ञान परंपरा की शिक्षाओं को संगठनों में मानसिक स्वास्थ्य प्रबंधन के लिए उपयोगी बताते हुए कहा कि यदि प्राचीन भारतीय ज्ञान को आधुनिक संगठनात्मक संरचनाओं में समाहित किया जाए, तो न केवल कार्यकुशलता बढ़ेगी बल्कि कर्मचारियों के समग्र कल्याण को भी सुदृढ़ आधार मिलेगा।
तृतीय मुख्य वक्ता प्रो. तुषार सिंह, विभाग मनोविज्ञान, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय ने अपने व्याख्यान में भारतीय ज्ञान परंपरा पर अपने समृद्ध अनुभव साझा किए। उन्होंने कुंभ मेले में आने वाले लोगों पर किए गए अपने शोध अध्ययनों का उल्लेख करते हुए बताया कि किस प्रकार अर्थ-निर्माण (मीनिंग मेकिंग) की प्रक्रिया हमारी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में निहित होती है और वही हमारे अनुभवों को आकार देती है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि मानसिक स्वास्थ्य की समझ और उसका अभ्यास तभी सार्थक हो सकता है जब हम उसे अपनी सांस्कृतिक जड़ों और परंपराओं के संदर्भ में देखें।
इस अवसर पर डॉ. शीला सिंह की पुस्तक “परामर्श एवं मनोचिकित्सा : सिद्धांत एवं अभ्यास” का विमोचन भी अतिथियों द्वारा किया गया।
कार्यक्रम की सह-संयोजक के रूप में प्रोफेसर अनुभूति दुबे (डीन, छात्र कल्याण) उपस्थित रहीं। कार्यक्रम का संचालन डॉ. विस्मिता पालीवाल द्वारा किया गया। आयोजन सचिव डॉ. गरिमा सिंह एवं डॉ. प्रियंका गौतम रहीं, जबकि आतिथ्य समिति की जिम्मेदारी डॉ. राम कीर्ति सिंह ने निभाई। विभिन्न वैज्ञानिक सत्रों का संचालन डॉ. रश्मि रानी ने किया।
इस अवसर पर प्रोफेसर आदेश अग्रवाल, प्रोफेसर अनुपम नाथ त्रिपाठी, प्रोफेसर प्रेम सागर नाथ तिवारी, प्रोफेसर सुषमा पांडे, प्रोफेसर मंजू मिश्रा, प्रो. सुधीर श्रीवास्तव, प्रो. उमेश त्रिपाठी, डॉ. अमित उपाध्याय, डॉ. आमोद राय सहित विभिन्न विभागों के शिक्षक एवं देशभर से आए प्रोफेसर, शोधार्थी और विद्यार्थी बड़ी संख्या में उपस्थित रहे। यह दो दिवसीय संगोष्ठी 16 सितम्बर तक चलेगी, जिसमें विभिन्न तकनीकी सत्रों में विशेषज्ञों के व्याख्यान और शोध-पत्र प्रस्तुत किए जाएंगे।
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