महामना मदन मोहन मालवीय: भारत की आत्मा के शिल्पी

नवनीत मिश्र
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अनेक ऐसे महान व्यक्तित्व हुए जिन्होंने अपने विचारों, कर्मों और चरित्र से राष्ट्र के निर्माण में अमिट योगदान दिया। उन महान विभूतियों में महामना पंडित मदन मोहन मालवीय का नाम अत्यंत आदर और श्रद्धा के साथ लिया जाता है। वे केवल एक राजनेता या शिक्षाविद ही नहीं, बल्कि भारत की आत्मा को स्वर देने वाले एक युगपुरुष थे — जिनकी दृष्टि में राष्ट्र केवल भूभाग नहीं, बल्कि एक जीवंत संस्कृति, सभ्यता और मानवीय मूल्यों की समग्र अभिव्यक्ति था।
मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसंबर 1861 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में एक विद्वान ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता पंडित ब्रजनाथ मालवीय संस्कृत के प्रसिद्ध कथा-वाचक थे। घर के धार्मिक और सांस्कृतिक वातावरण ने बालक मदन मोहन के व्यक्तित्व को प्रारंभ से ही गढ़ना शुरू कर दिया। वे अध्ययनशील, विनम्र और तेजस्वी बालक थे। प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत पाठशालाओं में हुई, तत्पश्चात उन्होंने इलाहाबाद के एम.ए.ओ. कॉलेज (वर्तमान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय) और बाद में कलकत्ता विश्वविद्यालय से अपनी उच्च शिक्षा पूरी की।
मालवीय जी का मानना था कि “शिक्षा केवल रोजगार प्राप्ति का साधन नहीं, बल्कि राष्ट्रनिर्माण का आधार है।” इसी विचार से प्रेरित होकर उन्होंने 1916 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। यह केवल एक शिक्षण संस्थान नहीं, बल्कि भारत के सांस्कृतिक और वैज्ञानिक पुनर्जागरण का केंद्र बना। उन्होंने आधुनिक विज्ञान, तकनीकी शिक्षा और भारतीय संस्कृति को एक साथ जोड़ने का सपना देखा था और बीएचयू उस सपने की मूर्त प्रतिमा बन गया।
मालवीय जी एक सशक्त पत्रकार भी थे। उन्होंने हिन्दुस्थान, द इंडियन यूनियन और लीडर जैसे अखबारों के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना जगाने का कार्य किया। उन्होंने पत्रकारिता को ‘सत्य और राष्ट्रहित की साधना’ माना, न कि केवल विचारों की राजनीति।
मदन मोहन मालवीय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चार बार अध्यक्ष रहे, 1909, 1918, 1930 और 1932 में। वे स्वदेशी आंदोलन, असहयोग आंदोलन और नमक सत्याग्रह के समर्थक रहे, किंतु उनका मार्ग हमेशा संयम, नैतिकता और अहिंसा से प्रेरित रहा। उन्होंने 1919 के जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद ब्रिटिश सरकार की कठोर आलोचना की और इस घटना को भारत के आत्मसम्मान पर गहरी चोट बताया। मालवीय जी का योगदान केवल आंदोलन तक सीमित नहीं था; उन्होंने हिन्दू महासभा की स्थापना कर सामाजिक एकता और धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का सूत्र प्रस्तुत किया। उनकी यह उक्ति आज भी प्रासंगिक है “राजनीति में नैतिकता का अभाव राष्ट्र को खोखला कर देता है।”
मालवीय जी का जीवन भारतीय संस्कृति के “सर्वे भवंतु सुखिनः” के आदर्श पर आधारित था। वे जाति, संप्रदाय और धर्म के आधार पर समाज को विभाजित करने के विरोधी थे। उन्होंने महिला शिक्षा, अस्पृश्यता उन्मूलन और ग्रामीण स्वावलंबन के पक्ष में अनेक प्रयास किए। उनकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति का सार थाl संयम, सहिष्णुता और आत्मबल। उन्होंने हिंदू धर्म के सनातन मूल्यों को आधुनिकता से जोड़ने का अद्भुत प्रयास किया, जिससे वे ‘संस्कृति और प्रगति’ के बीच सेतु बन गए।
मालवीय जी की वाणी में अद्भुत ओज था। कहा जाता है कि उनका भाषण सुनकर ब्रिटिश अधिकारी तक प्रभावित हो जाते थे। वे संस्कृत, हिंदी और अंग्रेजी के ज्ञाता थे, और हर भाषा में उनका वक्तव्य ज्ञान और शालीनता से भरा होता था। उनके शिष्य और समकालीन लोग कहते थे “मालवीय जी ने जो कहा, वही जिया।” उनका जीवन पारदर्शी और नैतिकता का उदाहरण था। इसी कारण लोकमान्य तिलक ने उन्हें “महामना” की उपाधि दी अर्थात् “महान आत्मा वाले व्यक्ति।”
उनके अमूल्य योगदान की मान्यता स्वरूप भारत सरकार ने वर्ष 2014 में उन्हें मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से अलंकृत किया। आज बीएचयू, जो एशिया का सबसे बड़ा आवासीय विश्वविद्यालय है, मालवीय जी की दृष्टि और समर्पण का जीवंत स्मारक है। भारतीय शिक्षा प्रणाली में उनकी सोच आज भी मार्गदर्शक हैl कि शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञानार्जन नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण और राष्ट्र सेवा है।
उनकी विरासत आज के भारत में हर उस नागरिक में जीवित है जो सच्चाई, संयम और राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानता है। महामना मदन मोहन मालवीय का जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्चा राष्ट्रनिर्माण केवल राजनीति या आंदोलन से नहीं, बल्कि चरित्र, शिक्षा और सेवा के समन्वय से होता है। वे एक ऐसे महामानव थे जिन्होंने न तो सत्ता का मोह किया, न पद की लालसा, उनका एकमात्र ध्येय था “भारत माता की सेवा।”
“महामना” केवल एक उपाधि नहीं, बल्कि एक जीवनदर्शन हैl जो आज भी हर भारतीय के लिए प्रेरणास्रोत है।

rkpNavneet Mishra

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