लखनऊ (राष्ट्र की परम्परा डेस्क)। अवैध धर्मांतरण के एक मामले में पुलिस कार्रवाई पर कड़ा रुख अपनाते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने साफ कहा है कि धर्मोपदेश देना और बाइबिल बांटना स्वयं में अपराध नहीं है। अदालत ने इस मामले में उत्तर प्रदेश सरकार को विस्तृत जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया है।
धर्मांतरण मामले में दर्ज एफआईआर को चुनौती
मामला उस याचिका से जुड़ा है जिसमें राम केवल प्रसाद समेत अन्य आरोपियों ने सुल्तानपुर के धम्मौर थाने में उनके खिलाफ दर्ज अवैध धर्मांतरण निवारण कानून 2021 और भारतीय न्याय संहिता 2023 के तहत एफआईआर को रद्द करने की मांग की है।
याचिका के अनुसार, वादी मनोज कुमार सिंह ने 17 अगस्त 2025 को एफआईआर दर्ज कराते हुए आरोप लगाया था कि आरोपियों ने प्रार्थना सभा आयोजित की, दलितों और गरीबों को बाइबिल बांटी और उनका धर्मांतरण कराने का प्रयास किया।
“बाइबिल बांटना अपराध नहीं साबित कर पाए” — हाईकोर्ट
याचियों की ओर से कहा गया कि एफआईआर तथ्यहीन और झूठे आरोपों पर आधारित है। सरकारी वकील ने याचिका का विरोध तो किया, लेकिन कोर्ट में यह साबित नहीं कर पाए कि बाइबिल बांटना या धर्मोपदेश देना कानूनन अवैध है।
खंडपीठ—न्यायमूर्ति अब्दुल मोईन और न्यायमूर्ति बबिता रानी—ने कहा कि प्राथमिक स्तर पर आरोप गंभीर रूप से संदेहास्पद प्रतीत होते हैं, इसलिए राज्य सरकार को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी होगी।
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राज्य सरकार को चार बिंदुओं पर हलफनामा दाखिल करने का आदेश
कोर्ट ने निर्देश दिया कि राज्य सरकार:
• चार निर्धारित बिंदुओं पर अपना जवाबी हलफनामा छह सप्ताह के भीतर दाखिल करे
• इसके बाद याची दो सप्ताह में अपना प्रतिउत्तर दाखिल कर सकते हैं
मामले की अगली सुनवाई न्यायालय ने छह सप्ताह बाद तय की है।
कानूनी और सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण फैसला
विशेषज्ञों के अनुसार, हाईकोर्ट का यह रुख धार्मिक स्वतंत्रता, प्रचार और धार्मिक साहित्य वितरण से जुड़े संवैधानिक अधिकारों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है। यह फैसला भविष्य के धर्मांतरण मामलों में भी महत्वपूर्ण मिसाल बन सकता है।
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