बिहार विधानसभा चुनाव के बीच महागठबंधन ने अपना प्रण पत्र जारी कर सियासी माहौल में नई हलचल पैदा कर दी है। यह दस्तावेज़ केवल चुनावी औपचारिकता नहीं, बल्कि विकास, सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता की नई रूपरेखा प्रस्तुत करने का दावा करता है। पर बड़ा सवाल यह है कि क्या यह घोषणापत्र जनता की वास्तविक आकांक्षाओं को दिशा देगा या फिर यह भी चुनावी मौसम में वादों की बौछार बनकर रह जाएगा।
महागठबंधन ने अपने घोषणापत्र में सामाजिक न्याय को केंद्र में रखते हुए जातीय संतुलन, पिछड़े वर्गों की भागीदारी, महिलाओं के अधिकार और युवाओं के अवसरों पर बल दिया है। आर्थिक समानता के मोर्चे पर किसानों की कर्जमाफी, गरीबों के लिए मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा में निवेश बढ़ाने जैसे प्रस्ताव शामिल हैं। यह संकेत देता है कि गठबंधन जनता के मूल मुद्दों — रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य — पर अपनी रणनीति केंद्रित कर रहा है।
इस बार बेरोजगारी को सबसे बड़ा चुनावी कार्ड बनाते हुए गठबंधन ने एक करोड़ रोजगार सृजन का वादा किया है। इसमें सरकारी नौकरियों के साथ निजी क्षेत्र में अवसर बढ़ाने की बात कही गई है। मगर बिहार जैसे राज्य में, जहाँ प्रवासन आज भी एक गहरी सामाजिक-आर्थिक चुनौती बना हुआ है, इतनी बड़ी संख्या में रोजगार सृजन कितना व्यावहारिक होगा, यह सवाल अब भी बना हुआ है। यदि गठबंधन ठोस नीति और संसाधनों के साथ आगे बढ़ता है तो यह राज्य की तस्वीर बदल सकता है, लेकिन यदि यह केवल कागज़ी घोषणा निकली तो जनता का भरोसा फिर टूट सकता है।
शिक्षा और स्वास्थ्य को विकास का आधार बताते हुए घोषणापत्र में जीडीपी का अधिक हिस्सा इन पर खर्च करने का वादा किया गया है। सरकारी स्कूलों में गुणवत्ता सुधार, शिक्षकों की नियुक्ति और अस्पतालों में आधुनिक सुविधाएँ बहाल करने की योजनाएँ इसमें शामिल हैं। बिहार जैसे राज्य में इन दो क्षेत्रों की स्थिति लंबे समय से चिंता का विषय रही है। यदि इन वादों पर गंभीरता से अमल हुआ तो यह राज्य के दीर्घकालिक विकास की दिशा तय कर सकता है।
विपक्षी दलों ने इस घोषणापत्र को “वादों का पुलिंदा” बताते हुए इसकी व्यावहारिकता पर सवाल उठाए हैं। जनता के बीच भी यह धारणा बनी है कि हर चुनाव में घोषणाएँ बहुत होती हैं, पर उनके क्रियान्वयन की गति बेहद धीमी रहती है। ऐसे में यह चुनाव केवल राजनीतिक दलों की नहीं, बल्कि बिहार के मतदाताओं की परिपक्वता की भी परीक्षा साबित होगा—क्या वे फिर वादों पर भरोसा करेंगे या अब ठोस परिणामों की मांग करेंगे।
महागठबंधन का यह प्रण पत्र एक बड़ा सवाल खड़ा करता है, क्या राजनीति का केंद्र जनकल्याण होना चाहिए या सियासी समीकरण? एक ओर यह घोषणापत्र विकास, समानता और संवैधानिक मूल्यों की बात करता है, तो दूसरी ओर यह राजनीतिक संतुलन साधने की रणनीति भी प्रतीत होता है। अब यह बिहार की जनता पर निर्भर है कि वे इसे परिवर्तन का दस्तावेज़ मानेंगी या चुनावी कोलाहल का हिस्सा।
महागठबंधन का घोषणापत्र उम्मीदों और आशंकाओं के बीच झूलता दस्तावेज़ है। इसमें बिहार के भविष्य की दिशा तय करने की क्षमता तो है, पर इसकी सफलता जनता के निर्णय और राजनीतिक ईमानदारी पर निर्भर करेगी। यदि वादे धरातल पर उतरते हैं तो यह राज्य की राजनीति को नई दिशा दे सकता है; अन्यथा यह भी बिहार के चुनावी इतिहास में एक और अधूरा अध्याय बनकर रह जाएगा।
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