आस्था — जो कभी आत्मा और ईश्वर के बीच का सबसे पवित्र सेतु मानी जाती थी — आज कई जगहों पर व्यापार और दिखावे का माध्यम बन चुकी है। भक्ति, श्रद्धा और विश्वास की आड़ में धर्म के नाम पर लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ का दौर लगातार बढ़ता जा रहा है।
जहाँ मंदिरों में श्रद्धालु नतमस्तक होकर अपने आराध्य की कृपा पाने आते हैं, वहीं कुछ तथाकथित ‘बाबा’ और ‘सेवक’ इस आस्था को अपने स्वार्थ का साधन बना चुके हैं।
भक्ति में व्यापार का प्रवेश
पिछले कुछ वर्षों में देश के अलग-अलग हिस्सों से ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जहाँ चमत्कार, भस्म, जल या ‘दर्शन’ के नाम पर लाखों रुपये वसूले गए।
कोई जल छिड़ककर भाग्य बदलने का दावा करता है, तो कोई रोगमुक्ति के नाम पर चढ़ावे की तयशुदा रकम मांगता है। श्रद्धालु अपनी आस्था में इतने गहरे होते हैं कि बिना जांचे-परखे इन दावों को सच मान बैठते हैं।
देवरिया जिले के एक श्रद्धालु ने बताया कि वह गोरखपुर से विंध्याचल माता के दर्शन के लिए निकले थे। भक्ति और आशीर्वाद की भावना लेकर जब वे मंदिर पहुँचे, तो सेवा में लगे एक पंडे ने उन्हें रोक दिया।
“मैंने श्रद्धा से चढ़ावा लेकर पहुंचा था, पर उन्होंने कहा कि निर्धारित राशि चढ़ाओ, नहीं तो दर्शन नहीं मिलेगा,”
भक्त की आँखों में निराशा झलकते हुए उसने कहा,
“उस क्षण ऐसा लगा जैसे मां की मूरत तो सामने थी, पर आशीर्वाद कहीं बिक चुका था।”
वह बताते हैं कि विंध्याचल से निराश होकर जब वे वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर पहुँचे, तो वहां भी कुछ इसी तरह की स्थितियां देखने को मिलीं — सेवा के नाम पर शुल्क, विशेष दर्शन के नाम पर टिकट, और भक्तिभाव में खलल डालते आर्थिक व्यवहार।
“आस्था तब तक पवित्र है जब तक विवेक साथ हो”
समाजशास्त्रियों का कहना है कि आस्था तभी सच्ची है जब वह ज्ञान और विवेक से जुड़ी हो।
“जब भक्ति बुद्धि से कट जाती है, तो वह अंधविश्वास का रूप ले लेती है और वहीं से शुरू होता है शोषण,”
ऐसा कहना है वरिष्ठ समाजशास्त्री डॉ. सुनील मिश्रा का।
धार्मिक विद्वान भी यही मानते हैं कि असली धर्म दिखावे या चमत्कार में नहीं, बल्कि मानवता, सेवा और सत्य में बसता है। धर्म का उद्देश्य लोगों को जोड़ना है, बाँटना नहीं।
आस्था के उजले उदाहरण भी हैं
जहाँ कुछ धार्मिक स्थल आस्था के नाम पर आर्थिक लालच में डूब रहे हैं, वहीं कुछ संस्थान ऐसे भी हैं जो सच्ची सेवा भावना के उदाहरण हैं।
जैसे जम्मू के वैष्णो देवी मंदिर और महाराष्ट्र के सिद्धिविनायक मंदिर — जहाँ भक्तों से किसी भी प्रकार का अनिवार्य चढ़ावा नहीं मांगा जाता। यहाँ श्रद्धा को धन से नहीं, भाव से तौला जाता है।
अब सवाल समाज और शासन दोनों से
क्या धर्म के नाम पर चल रही इस “लूट-खसोट” पर रोक लगेगी?
क्या सरकार ऐसे पंडों, दलालों और फर्जी संस्थाओं पर सख्त कार्रवाई करेगी जो आस्था को व्यापार बना रहे हैं?
यह सवाल सिर्फ शासन से नहीं, समाज से भी है — क्योंकि जब तक जनता विवेक से नहीं जागेगी, तब तक धर्म के नाम पर ठगी का यह खेल जारी रहेगा।
🕉️आस्था का अर्थ है विश्वास — पर विवेक के साथ।
जब तक भक्ति में बुद्धि का प्रकाश नहीं होगा, तब तक धर्म के नाम पर व्यापार फलता-फूलता रहेगा।
जरूरत है उस “सच्चे धर्म” की ओर लौटने की — जो सेवा, सत्य और समर्पण में बसता है।
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