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परंपराओं से कटाव और समाज का विघटन

वामपंथी सोच और भारतीय संस्कृति: समृद्धि या विकृति?

भारत, एक ऐसा देश जहां संस्कृति, धर्म, कला, और साहित्य की जड़ें सदियों से फैली हुई हैं, आज एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। यह देश विविधताओं में एकता का प्रतीक है, और इसकी सांस्कृतिक धरोहर विश्वभर में प्रशंसा पाती है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में, वामपंथी विचारधारा ने भारतीय समाज के कई पहलुओं पर अपनी गहरी छाप छोड़ी है। इस विचारधारा ने साहित्य, कला, शैक्षिक संस्थानों, और इतिहास के क्षेत्र में भारतीय संस्कृति को चुनौती दी है। वामपंथी विचारधारा का भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़ा है, इसे समझने के लिए हमें इसके विभिन्न पहलुओं का गहराई से विश्लेषण करना होगा।

वामपंथी विचारधारा ने भारतीय साहित्य और कला में आधुनिकता के नाम पर ऐसे बदलाव लाने की कोशिश की है, जो भारतीय समाज के पारंपरिक और सांस्कृतिक मूल्यों के खिलाफ हैं। साहित्य और कला समाज की संवेदनाओं और मानसिकताओं को प्रकट करने का माध्यम होते हैं। साहित्यकारों और कलाकारों की जिम्मेदारी होती है कि वे समाज को सही दिशा में मार्गदर्शन करें, न कि उसे भ्रमित करें। वामपंथी विचारकों ने साहित्य में अश्लीलता, विकृत मानसिकताओं और व्यक्तिगत संबंधों की विकृति को ‘आधुनिकता’ के नाम पर प्रस्तुत किया है। यह केवल समाज में नैतिकता की गिरावट का कारण नहीं बनता, बल्कि यह समाज में असंतुलन और असहमति की स्थिति भी उत्पन्न करता है।

वामपंथी लेखकों ने भारतीय धर्म, संस्कृति और परंपराओं को नकारात्मक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया। उन्होंने देवी-देवताओं, धार्मिक परंपराओं और संस्कारों का मजाक उड़ाया, और इसे साहित्य में “आधुनिकता” के रूप में प्रस्तुत किया। जब साहित्यकार समाज की जड़ों से कटकर केवल पश्चिमी विचारधारा को अपनाते हैं, तो वे समाज के पारंपरिक मूल्यों और नैतिकताओं से दूर हो जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप, भारतीय साहित्य और कला में एक खोखली और विकृतता फैलने लगती है।

वामपंथी विचारधारा ने कला के माध्यम से भी भारतीय समाज की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं को चुनौती दी है। कलाकारों ने परंपरागत रूपों को छोड़कर आधुनिक कला को अपनाया, जो भारतीय संस्कृति और उसकी गहरी जड़ों से कटकर बाहरी प्रभावों को स्वीकार करता है। यही कारण है कि भारतीय कला में पारंपरिक रूपों की जगह पश्चिमी और वैश्विक विचारधारा का दबदबा बढ़ा है, जो भारतीय समाज के साथ न सुसंगत हैं।

भारतीय शैक्षिक संस्थान, जहां युवा पीढ़ी अपनी शिक्षा प्राप्त करती है, वहां वामपंथी विचारधारा का गहरा प्रभाव है। कई विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में वामपंथी विचारकों ने अपनी विचारधारा को छात्रों पर थोपने का प्रयास किया है। यह विचारधारा भारतीय समाज की वास्तविकता और संस्कृति से दूर होती है और कभी-कभी इसे विकृत रूप में प्रस्तुत करती है। छात्रों को यह सिखाने के बजाय कि भारतीय संस्कृति, धर्म, और परंपराओं की अपनी गहरी अहमियत है, इन संस्थानों में अक्सर उन्हें आलोचनात्मक दृष्टिकोण से पेश किया जाता है। वामपंथी विचारधारा का यह प्रयास छात्रों में भ्रम और असंतुलन उत्पन्न करता है।

वामपंथी विचारक भारतीय इतिहास को भी एक निश्चित दृष्टिकोण से प्रस्तुत करते हैं, जिसमें केवल नकारात्मक पक्षों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। जातिवाद, असमानताएँ, और सामंती व्यवस्था जैसी समस्याओं को तो बड़े पर्दे पर लाया जाता है, लेकिन भारतीय समाज में सहिष्णुता, प्रेम, और विविधता के पक्षों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। जब विद्यार्थियों को एकतरफा दृष्टिकोण से शिक्षा दी जाती है, तो वे भारतीय समाज की समृद्ध और विविध सांस्कृतिक धरोहर को सही तरीके से नहीं समझ पाते। इसके परिणामस्वरूप, एक नई पीढ़ी को ऐसी शिक्षा मिलती है, जो समाज के बारे में एक पक्षीय और विकृत दृष्टिकोण अपनाती है।

वामपंथी विचारधारा के प्रभाव में, छात्र संगठनों ने भी भारतीय समाज और संस्कृति की आलोचना करना शुरू कर दिया है। विश्वविद्यालयों में आयोजित बहसों और विचार-विमर्शों में अक्सर यह देखा जाता है कि वामपंथी विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए किसी भी कीमत पर भारतीय परंपराओं और धर्मों का मजाक उड़ाया जाता है। यह भारतीय समाज के लिए हानिकारक हो सकता है क्योंकि यह भारतीय संस्कृति की नींव को कमजोर करता है और समाज के भीतर असहमति उत्पन्न करता है।

भारतीय इतिहास में वामपंथी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। वामपंथी इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास के अंधेरे पहलुओं को उजागर किया है, जैसे जातिवाद, सामंती व्यवस्था, और ब्रिटिश शासन की आलोचना। हालांकि, इन पहलुओं को नकारना नहीं चाहिए, लेकिन वामपंथी दृष्टिकोण भारतीय इतिहास को एकतरफा और विकृत रूप में प्रस्तुत करता है।

वामपंथी इतिहासकार भारतीय धर्म, संस्कृति, और परंपराओं को आलोचना करते हैं और उन्हें तुच्छ रूप में प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने भारतीय समाज के असमानताओं और संघर्षों को ही प्रमुख रूप से प्रस्तुत किया है और कभी भी भारतीय सभ्यता के सकारात्मक पहलुओं को महत्व नहीं दिया। भारतीय समाज में जिस प्रकार का सामूहिक प्रेम, सहिष्णुता, और अहिंसा का संदेश है, उसे वामपंथी इतिहासकारों ने नज़रअंदाज़ कर दिया है। इस दृष्टिकोण से भारतीय इतिहास को एकतरफा रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जो भारतीय संस्कृति और समाज के वास्तविक स्वरूप से बहुत दूर है।

यह विडंबना है कि कुछ राष्ट्रवादी विचारक और नेता, जो पहले वामपंथी विचारधारा के आलोचक थे, अब उन्हें मंचों पर बुलाते हैं और उनके विचारों को अपनाने की कोशिश करते हैं। यह स्थिति भारतीय राजनीति के लिए खतरनाक हो सकती है, क्योंकि इससे राष्ट्रवाद की असली भावना कमजोर हो जाती है। राष्ट्रवाद का उद्देश्य केवल भारतीय संस्कृति और परंपराओं की रक्षा करना होना चाहिए, लेकिन जब ऐसे विचारक, जो पहले भारतीय धर्म और संस्कृति का मजाक उड़ाते थे, अब राष्ट्रवाद का चेहरा बनने की कोशिश करते हैं, तो यह स्थिति समाज में भ्रम उत्पन्न करती है।

राष्ट्रवाद का वास्तविक उद्देश्य भारतीय समाज के सामूहिक हितों की रक्षा करना है, और इसके लिए हमें अपनी संस्कृति, धर्म, और परंपराओं की रक्षा करनी होगी। वामपंथी विचारक अब राष्ट्रवाद का हिस्सा बनकर अपने पुराने विचारों से पलायन कर रहे हैं, जिससे भारतीय समाज में एक नया भ्रम पैदा हो रहा है। जब राष्ट्रवादी विचारक वामपंथी विचारधारा को स्वीकारने की कोशिश करते हैं, तो यह राष्ट्रवाद की सच्चाई को कमजोर करता है।

वामपंथी विचारधारा ने भारतीय समाज के पारंपरिक मूल्यों को कमजोर किया है। भारतीय समाज में परिवार और रिश्ते केवल सामाजिक संस्थाएँ नहीं होते, बल्कि यह धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण होते हैं। लेकिन वामपंथी विचारधारा ने इसे केवल एक सामाजिक संस्था के रूप में प्रस्तुत किया है, जो व्यक्तिगत स्वार्थ और अधिकारों पर आधारित है। यह दृष्टिकोण समाज में असंतुलन पैदा करता है और पारंपरिक परिवार व्यवस्था को कमजोर करता है।

वामपंथी विचारधारा ने भारतीय समाज में उन मूल्यों को भी नष्ट करने का प्रयास किया है, जो समाज के सामूहिक हितों को प्राथमिकता देते हैं। जैसे कि भारतीय समाज में गुरू-शिष्य परंपरा, परिवार के प्रति समर्पण, और समाज के प्रति दायित्व की भावना अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। लेकिन वामपंथी विचारधारा ने इसे केवल एक “पारंपरिक” और “अहंकारी” दृष्टिकोण के रूप में पेश किया है, जिससे समाज में असंतुलन और असहमति की स्थिति उत्पन्न हो रही है।

वामपंथी विचारधारा ने भारतीय समाज में सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से कई विकृतियाँ फैलाई हैं। इस विचारधारा ने साहित्य, कला, शिक्षा और इतिहास के माध्यम से भारतीय संस्कृति और समाज के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण विकसित किया है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि भारतीय समाज की शक्ति और एकता केवल हमारी सांस्कृतिक धरोहर और धार्मिक विश्वासों में ही निहित है। वामपंथी विचारधारा का विरोध करना हमारा कर्तव्य है, ताकि हम अपनी सभ्यता, संस्कृति और परंपराओं की रक्षा कर सकें।

अब समय आ गया है कि हम वामपंथी विचारों को पहचानें और भारतीय संस्कृति के संरक्षण के लिए सक्रिय कदम उठाएँ। यही हमारी जिम्मेदारी है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ अपनी सांस्कृतिक धरोहर और धार्मिक विश्वासों से जुड़ी रहें और हमारे समाज की एकता और शक्ति बनी रहे।

डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार

rkpnews@desk

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