दक्षिण कोरिया बुसान ट्रंप- ज़िनपिंग मुलाक़ात -दुनियाँ के लिए एक प्रतीकात्मक संदेश है,कि वैश्विक शांति का रास्ता संवाद से गुजरता है, जिसमें विश्वास और समानता की भावना हो, ज़ो नहीं दिखा-एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र
गोंदिया – वैश्विक स्तरपर दुनियाँ की निगाहें आज दक्षिण कोरिया के बुसान शहर पर टिकी थीं, जहाँ लगभग छह वर्षों केअंतराल के बाद अमेरिकी राजनीति के सबसे प्रभावशाली चेहरों में से एक डोनाल्ड ट्रंप और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग एक ही फ्रेम में नजर आए। यह दृश्य प्रतीकात्मक रूप से जितना साधारण दिखा,उतना ही भू-राजनीतिक दृष्टि से गूढ़ था। दोनों नेता विश्व राजनीति की दो ऐसी ध्रुवीय शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो पिछले एक दशक से अधिक समय से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से वैश्विक आर्थिक, सैन्य और वैचारिक प्रतिस्पर्धा में लिप्त हैं। मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं कि यद्यपि मंच साझा करने का दृश्य शांति और संवाद का संदेश देता है, किंतु दोनों के बीच उपस्थित कूटनीतिक दूरी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थी। यह दूरी मात्र शारीरिक नहीं, बल्कि नीतिगत, विचारधारात्मक और शक्ति-प्रदर्शन की गहराइयों में निहित है।साउथ कोरिया के बुसान में हुई यह बैठक औपचारिक रूप से एशिया- पैसिफिक क्षेत्र में आर्थिक स्थिरता और सुरक्षा मुद्दों पर केंद्रित थी। लेकिन इसके पीछे वास्तविक उद्देश्य था,वैश्विक शक्ति समीकरणों को पुनः परिभाषित करना। ट्रंप, जो दोबारा अमेरिकी राजनीति के केंद्र में लौट आए हैं, अपनी पूर्ववर्ती नीतियों के समान ही इस बार भी “अमेरिका फर्स्ट” एजेंडा लेकर आए हैं। दूसरी ओर, शी जिनपिंग, जो अपनी तीसरी कार्यावधि में चीन को एक आर्थिक और सैन्य सुपरपावर के रूप में स्थापित करने की दिशा में अग्रसर हैं, इस बैठक को एक मंच के रूप में देख रहे थे,जहाँ चीन अपनी रणनीतिक आत्मनिर्भरता का प्रदर्शन कर सके। हालांकि, इन दोनों के बीच हुए संवाद की प्रकृति में ठंडापन झलक रहा था।ऐसा प्रतीत हुआ मानो दोनों नेता एक औपचारिक कूटनीतिक आवश्यकता के तहत एक साथ बैठे हों, न कि आपसी विश्वास या सामरिक साझेदारी के उद्देश्य से बैठक की।
साथियों बात अगर हम दक्षिण कोरिया बुसान बैठक चीन-रूस ऊर्जा गठबंधन और अमेरिकी मौन को समझने की करें तो, वर्तमान वैश्विक ऊर्जा समीकरण में चीन और रूस के बीच का गठबंधन अत्यंत महत्वपूर्ण है। रूस- यूक्रेन युद्ध के बाद, जब पश्चिमी देशों ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए, तब चीन ने रूस से कच्चे तेल की खरीद में उल्लेखनीय वृद्धि की।आज चीन रूस का सबसे बड़ा तेल खरीदार बन चुका है।लेकिन बुसान की बैठक में, जहाँ ट्रंप ने भारत पर रुस से तेल खरीदने पर 50 पर्सेंट टैरिफ लगाने जैसे कठोर आर्थिक कदमों की घोषणा की थीं, वहीं उन्होंने चीन-रूस ऊर्जा गठबंधन के मुद्दे पर आश्चर्यजनक मौन बनाए रखा। ताइवान चीन संबंधों पर भी यह मौन तथा 10 पर्सेंट टैरिफ कम करना अमेरिका की रणनीतिक विवशता को दर्शाता है,क्योंकि ट्रंप भली-भांति जानते हैं कि रूस के तेल व्यापार में चीन की भागीदारी पर सीधा प्रश्न उठाना एक व्यापक जियो- इकोनॉमिक टकराव को जन्म दे सकता है।दूसरी ओर, ट्रंप भारत के उभरते व्यापारिक प्रभाव और डॉलर-मुक्त ऊर्जा सौदों से असहज हैं। इसलिए उन्होंने भारत पर टैरिफ बढ़ाकर आर्थिक दबाव बनाने की रणनीति अपनाई ,यह चीन के बजाय एक सॉफ्ट टारगेट पॉलिसी की झलक है।अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंद्विता अब केवल आर्थिक नहीं रही,यह अब सॉफ्ट पावर बनाम हार्ड पॉलिटिक्स की लड़ाई बन चुकी है। चीन अपनी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव,टेक्नोलॉजी हब्स और डिजिटल युआन के माध्यम से एक वैकल्पिक वैश्विक आर्थिक व्यवस्था तैयार कर रहा है। वहीं अमेरिका अपने पुराने सहयोगियों जापान, दक्षिण कोरिया,ऑस्ट्रेलिया और भारत (क्वाड के ज़रिए) के साथ सामरिक संतुलन साधने की कोशिश कर रहा है।बुसान बैठक इस व्यापक संघर्ष का एक कूटनीतिक मंच बनकर उभरी। ट्रंप और शी जिनपिंग दोनों ने अपने-अपने राजनीतिक हितों को साधने की कोशिश की,परंतु विश्वास की पुनर्स्थापना अभी बहुत दूर दिख रही है।
साथियों बात अगर हम ट्रंप की गर्मजोशी और शी जिनपिंग की भावहीनता-दो व्यक्तित्व, दो रणनीतियाँ मंत्र को समझने की करें तो,जब बैठक की शुरुआत हुई, ट्रंप पूरे उत्साह और आत्मविश्वास में दिखाई दिए। उन्होंने शी जिनपिंग की ओर बढ़ते हुए अत्यंत गर्मजोशी से हाथ मिलाया। यह वही ट्रंप हैं,जिन्होंने अपने राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान “ट्रेड वॉर” के जरिए चीन की अर्थव्यवस्था को चुनौती दी थी,लेकिन साथ ही समय- समय पर व्यक्तिगत संबंधों की राजनीति का भी प्रयोग किया। उनके चेहरे पर मुस्कुराहट,आत्मीयता और कैमरों की ओर देखने का आत्मविश्वास था,यह ट्रंप की विशिष्ट शैली है, जो वे अक्सर कूटनीतिक मंचों पर दिखाते हैं।इसके विपरीत,शी जिनपिंग का चेहरा लगभग भावहीन था, न मुस्कुराहट,न तनाव,न ही कोई प्रतिक्रिया। यह चीन की कूटनीतिक परंपरा का हिस्सा है,जहाँ “संयम”और “भावनाओं का नियंत्रण” नेतृत्व की परिपक्वता का प्रतीक माना जाता है। लेकिन इस बार उनकी शांति एक गहरी असहमति या असंतोष का संकेत भी दे रही थी। यह संकेत उस अविश्वास का था,जो अमेरिका और चीन के बीच पिछले कुछ वर्षों में और गहराता गया है,विशेषकर ट्रेड वॉर, टेक्नोलॉजी कंट्रोल्स, साउथ चाइना सी विवाद, और ताइवान के मुद्दों के कारण।
साथियों बात अगर हम ट्रंप का “अकेले चलना”,शक्ति प्रदर्शन या संदेश? कुछ समझने की करें तो,बैठक के समापन पर जब सभी नेता अपने-अपने मार्ग की ओर बढ़े, तो ट्रंप ने शी जिनपिंग के साथ कुछ औपचारिक शब्दों का आदान-प्रदान करने के बाद उन्हें उनकी गाड़ी तक छोड़ा फिर वहां से अकेले प्रस्थान किया। यह दृश्य मीडिया के कैमरों में कैद हुआ और तुरंत अंतरराष्ट्रीय सुर्खियाँ बन गया। विश्लेषकों का मानना है कि ट्रंप का “अकेले चलना” किसी अनायास घटना का परिणाम नहीं था, बल्कि एक सामरिक संकेत था,यह दिखाने के लिए कि अमेरिका किसी पर निर्भर नहीं है और वह विश्व मंच पर एकाकी नेतृत्व करने में सक्षम है। इसके विपरीत, शी जिनपिंग ने इस दृश्य को पूरी तरह नज़र अंदाज़ किया। उनका शांत और संयमित व्यवहार यह दर्शा रहा था कि चीन भावनात्मक प्रतिक्रियाओं से ऊपर उठकर रणनीतिक स्तर पर सोच रहा है। यह उनके “सॉफ्ट पॉवर” और “कूटनीतिक मौन”की नीति का प्रतीक है,जहाँ प्रतिक्रियाएँ शब्दों से नहीं, बल्कि नीतियों से दी जाती हैं।
साथियों बात अगर हम ट्रंप की मीडिया रणनीति और “10 में से 12” अंक देने को समझने की करें तो,मीटिंग के बाद अमेरिकी मीडिया में ट्रंप ने बयान दिया कि वे इस बैठक को “सफल” मानते हैं और उसे 10 में से 12 अंक देते हैं। यह बयान उनके विशिष्ट अंदाज़ का हिस्सा था अतिशयोक्ति पूर्ण, आत्मविश्वासी और मीडिया आकर्षण केंद्रित। ट्रंप जानते हैं कि उनकी राजनीतिक पहचान केवल नीतियों से नहीं, बल्कि नैरेटिव कंट्रोल से बनती है।उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की कि वे एक ऐसे नेता हैं,जो हरपरिस्थिति में विजयी दिखाई देते हैं।यह अमेरिकी मतदाताओं के लिए एक मनोवैज्ञानिक संकेत था कि ट्रंप वैश्विक कूटनीति में फिर से सक्रिय हैं और “अमेरिका की प्रतिष्ठा” को पुनः स्थापित कर रहे हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीयविश्लेषकों का मत इससे भिन्न है। उनका कहना है कि ट्रंप की यह सफलता घोषणा अधिकतर प्रचारात्मक थी, क्योंकि बैठक में किसी ठोस नीति या समझौते की घोषणा नहीं हुई।
साथियों बातअगर हम ट्रंप व ज़िनपिंग क़ी बुसान बैठक के भू-राजनीतिक निहितार्थ को समझने की करें तो, बुसान की बैठक केवल एक औपचारिक मुलाकात नहीं थी,यह आने वाले दशक की अंतरराष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करने वाला संकेत थी। अमेरिका और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा अब भू-अर्थव्यवस्था, ऊर्जा सुरक्षा, डिजिटल प्रभुत्व और कूटनीतिक गठबंधनों में परिलक्षित होगी।ट्रंप और शी जिनपिंग के चेहरे के भाव, उनकी शारीरिक भाषा, और उनके मौन तक ने इस बात को स्पष्ट कर दिया कि यह शीत युद्ध का नया संस्करण शुरू हो चुका है,एक ऐसा युद्ध, जिसमें हथियार नहीं बल्कि टैरिफ, टेक्नोलॉजी और ट्रेड ब्लॉक इस्तेमाल किए जा रहे हैं।
साथियों बात अगर हम भारत की भूमिका, संतुलनकारी शक्ति को समझने की करें तो,इस पूरी परिदृश्य में भारत की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। जहाँ ट्रंप भारत पर टैरिफ बढ़ाकर आर्थिक दबाव बना रहे हैं, वहीं भारत अब वैश्विक मंचों पर रणनीतिक आत्मनिर्भरता और मल्टी- अलाइनमेंट की नीति अपना रहा है। भारत न तो अमेरिका की कठपुतली है,न चीन का समर्थक ,बल्कि वह दोनों के बीच एक तटस्थ शक्ति संतुलनकारी देश के रूप में उभर रहा है। ट्रंप का भारत पर टैरिफ लगाना यह भी दर्शाता है कि अमेरिका अब भारत को केवल सहयोगी नहीं, बल्कि प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था के रूप में देखने लगा है। वहीं चीन भारत को एशिया में अमेरिका की कूटनीति का विस्तार मानता है। इस जटिल त्रिकोणीय संबंध में, भारत का हर कदम अब वैश्विक शक्ति समीकरणों को प्रभावित करता है।
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे क़ि एक फ्रेम में दो विपरीत ध्रुव,छह वर्षों बाद एक ही मंच पर दिखाई दिए ट्रंप और शी जिनपिंग,परंतु उनके बीच की मानसिक दूरी शायद पहले से भी अधिक बढ़ चुकी है। ट्रंप की राजनीति “सीधे टकराव और मीडिया प्रभुत्व” पर आधारित है, जबकि शी जिनपिंग “रणनीतिक संयम और दीर्घकालिक योजनाओं” के प्रतीक हैं।यह मुलाकात दुनियाँ के लिए एक प्रतीकात्मक संदेश है, कि वैश्विक शांति का रास्ता संवाद से गुजरता है,लेकिन संवाद तभी फलदायी होता है जब उसमें विश्वास और समानता की भावना हो। बुसान की यह मुलाकात फिलहाल विश्वास नहीं,बल्कि अविश्वास का संकेत बनकर उभरी है।ट्रंप और शी जिनपिंग भले ही एक फ्रेम में कैद हुए हों,लेकिन उनके बीच की विचारधारात्मक और नीतिगत दूरी आज भी उतनी ही गहरी है,जितनी प्रशांत महासागर के दोनों किनारों के बीच की दूरी।
–संकलनकर्ता लेखक-क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यम सीए (एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र 9359653465
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